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अपनी अपनी न कह कर
कुछ एक दूजे की सुनते हैं
एक अनूठी पहल करते हैं
बीते पलों को फिर जीते हैं
तारे गिन गिन रात रातभर
चलो नींदों को छकाते हैं
बहुत भागे सपनों के पीछे
अब जीवन-मर्म समझते हैं।
मं शर्मा (रज़ा)
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