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आह ट्यूलिप तुम आयी पास!
हो रहा धरित्री का उपहास,
अगल बगल कंक्रीट वन,
ऊसर, धूसर, उचाट मन।
है शहर वासनाओं का वन,
तुम कर रही इसका शरमन,
होता रहता कवियों का ह्रास,
तुम करती रहती उनको सहास।
तुम्हारे अरुणाभ शुभ्र परिधान,
इस धूम्रनयन को दिखे उद्यान,
तुम प्रियतमा सी आ बैठी पास,
अभागा मैं तकता रहा नि:श्वास।
न है यहाॅं कोई मधुमास,
न कहीं शुचिता का वास,
फूल खिलते शहर की आज्ञा पर,
झड़ते भी नहीं कभी अवज्ञा कर।
न आकाश गाता कोई राग,
पक्षियों को भी होता विराग,
पर ट्यूलिप गाती शीत-गीत,
ठिठुरते हिय में जगाती प्रीत।
तुम आरूष चुनती रहती भोर,
गाती रहती होकर विभोर,
है तुम्हें किसका इंतजार,
किसकी खा
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