
आह ट्यूलिप तुम आयी पास!
हो रहा धरित्री का उपहास,
अगल बगल कंक्रीट वन,
ऊसर, धूसर, उचाट मन।
है शहर वासनाओं का वन,
तुम कर रही इसका शरमन,
होता रहता कवियों का ह्रास,
तुम करती रहती उनको सहास।
तुम्हारे अरुणाभ शुभ्र परिधान,
इस धूम्रनयन को दिखे उद्यान,
तुम प्रियतमा सी आ बैठी पास,
अभागा मैं तकता रहा नि:श्वास।
न है यहाॅं कोई मधुमास,
न कहीं शुचिता का वास,
फूल खिलते शहर की आज्ञा पर,
झड़ते भी नहीं कभी अवज्ञा कर।
न आकाश गाता कोई राग,
पक्षियों को भी होता विराग,
पर ट्यूलिप गाती शीत-गीत,
ठिठुरते हिय में जगाती प्रीत।
तुम आरूष चुनती रहती भोर,
गाती रहती होकर विभोर,
है तुम्हें किसका इंतजार,
किसकी खातिर करती शृंगार?
तुम माला गूॅंथती अरुण की
पर शशि को कोसती हो,
वहीं बैठी संकुचन में
कौन किस्सा गुनती हो?
मैं सुनाऊॅं तुम्हें प्रेमगीत,
जताऊॅं तुमको अपना प्रीत?
नहीं, मैं शहर का ही मनुज,
मन से दूषित, चित से दनुज।
मेरे गीत सारे अश्रव्य-अश्लील
लेगी तुम्हारी निश्छलता को लील,
मेरी वासना से हो न तुम्हारा दूषण,
तुम अकिंचन शहर की एकमात्र भूषण ।
मुझे धीर धरना भी न आता,
मुझे मौन कहना भी न आता,
मैं रोज़ प्रेम-प्रमेय साधता हूॅं,
विकृत परिभाषाओं में बाॅंधता हूॅं।
ट्युलिप ये अम्लान रह जाए,
मेरे स्पर्श से अनजान रह जाए,
तुम तोड़ती रहो आमर्ष की अट्टालिका,
सजाती रहो इस बंजर में भी वाटिका।
- मानस
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