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खनक
हंसती खिलखिलाती
ठहाके लगाती हुई औरतें
चुभती हैं तुम्हारी आँखों में
कंकर की तरह...
क्योंकी तुम्हें आदत है
सभ्यता के दायरों
में बंधी दबी सहमी
संयमित आवाज़ों की....
उनकी उन्मुक्त हँसी
विचलित करती है तुम्हें
तुम घबराकर बंद करने लगते हो
दरवाज़े खिड़कियां..रोकने चलो हो उसे
जो उपजी है
इन्हीं दायरों के दरमियां ।
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