
आज चलते-चलते यूँ ही, इक गलत गली में मुड़ गया। अब गली को गलत बोलना किस हद तक सही है, ये तो मालूम नही; मगर हाँ, लोगों से अभी तक सुनते तो यही आया हूँ कि अगर रास्ते से मंज़िल का अंदाज़ा न लगा पाओ तो फिर रास्ता ही गलत है। मगर ऐसा क्यूँ?
मंज़िल!! मंज़िल का अंदाजा तो सही गली में घूमकर भी नही लगा पाया। और आखिर में मंज़िल है भी क्या? ये सवाल का जवाब तो शायद तभी पता चल पायेगा जब एक बार सारी गलियों में भटक लूँ। पर वैसा करने में तो उमर बीत जानी है सारी। और तब भी मालूम नही कि मंज़िल मिले न मिले...
पर कहीं न कहीं दिल की एक छोटी सी धड़कन ये भी कहती है कि मंज़िल तो साला तेरा 'घर' ही है। पर फिर ये तो एक अलग ही पहेली हो जायेगी। क्योंकि घर से ही तो निकला था मंज़िल की तलाश में, तो वो कैसे मंज़िल हुई? और अगर घर मंज़िल है भी, तो कौनसा घर? वो मकान जहाँ पर मैं रहता हूँ? या वो मकान जहाँ पर मैं बड़ा हुआ हूँ? और सवाल तो यह भी है न कि घर मतलब मकान है भी की नही?? क्यूंकि अगर कोई चार-दीवारें ही मेरी मंज़िल है तो फिर क्या ही फ़ायदा ऐसी मंज़िल का? क्या ही फ़ायदा ऐसे घर का?
पर खैर छोड़ो, अभी फायदे की बात नही ही करते हैं। अभी बात ये है कि आगे क्या किया जाये? मंज़िल की तलाश में यूँही भटकते रहें? या साली तलाश ही छोड़ दें?? जवाब भी तलाशें? या ऐसे ही सवाल पूछते रहें???
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