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इक भटकता सा मुसाफ़िर...

Madhav RathiMadhav Rathi June 16, 2020
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आज चलते-चलते यूँ ही, इक गलत गली में मुड़ गया। अब गली को गलत बोलना किस हद तक सही है, ये तो मालूम नही; मगर हाँ, लोगों से अभी तक सुनते तो यही आया हूँ कि अगर रास्ते से मंज़िल का अंदाज़ा न लगा पाओ तो फिर रास्ता ही गलत है। मगर ऐसा क्यूँ?

मंज़िल!! मंज़िल का अंदाजा तो सही गली में घूमकर भी नही लगा पाया। और आखिर में मंज़िल है भी क्या? ये सवाल का जवाब तो शायद तभी पता चल पायेगा जब एक बार सारी गलियों में भटक लूँ। पर वैसा करने में तो उमर बीत जानी है सारी। और तब भी मालूम नही कि मंज़िल मिले न मिले...

पर कहीं न कहीं दिल की एक छोटी सी धड़कन ये भी कहती है कि मंज़िल तो साला तेरा 'घर

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