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मैं अपनी नब्जों से लहू निकाल कर
अपनी नज्मों में भरता चला गया..
मंजिल को पाने के खातिर मैं
अपनों से ही बिछड़ता चला गया..
मुझे सफ़र में अब तक जो भी मिला हैं
उन सारे अजनबियों को अपनाता चला गया..
हर किसी ने की मेरे सामने उसी का ज़िक्र
हर शख़्स मेरे जख्मों को कुरेदता चला गया..
सुन सान रास्ते से आ जाती हैं आवाज़ें तेरी
कुछ यूं ही मुझ को तन्हाई सताता चला गया..
दो चार किस्से सुना कर अपने प्रेम की मैंने
इस दौर के लड़को को कायल बनाता चला गया..
वो प्यार में पड़ने वाला लड़का नहीं था
हर कोई प्रेम को बुरा बताता चला गया..
मैं सर्दी की चांद रातों में बैठ कर
एक ग़ज़ल लिखता चला गया..
मैं ' जॉन ' का आशिक़ हूं बस
इसी लिए मूंह से ज़हर उगलता चला गया..
मुझे अब किसी से सहारे की उम्मीद नहीं
मैं ख़ुद से ही ख़ुद को संभालता चला गया..
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