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मेरे ग़म अब ठहरते नहीं हैं सीने में
जिससे मुश्किल हो रहा हैं जीने में
सबके सामने रो भी नहीं सकते
इसी लिए रोते हैं छुपके कोने में
उदासी से भरी अगर रात हैं तो
हर्ज़ क्या हैं तकिया भिगोने में
रात का दुःख तुम्हें कहां मालूम
तेरी रात तो गुज़रती हैं सोने में
लोग पूछते है क्यों आँखें लाल है
क्या कहूं उनसे कि हुआ है रोने में
जब ‘अंकित’ नहीं सहा जा रहा
सो कोई दिक्कत नहीं है मरने में
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