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जैसा मैंने सोचा वैसा उस शख़्स में था कुछ भी नहीं
मेरे लिए वो सब कुछ था उसके लिए मैं कुछ भी नहीं
मेरे अंदर की ख़ामोशी ही किसी दिन मार डालेगी मुझे
हंसते हुए देख सबको लगता है कि हुआ कुछ भी नहीं
ख़ामोशी ही ख़ामोशी फैल जाती हैं रातों को कमरे में
वैसे ग़ौर से देखने पर नज़र आता हैं यहां कुछ भी नहीं
मेरे इंतज़ार की घड़ियां अब बस खत्म ही होने वाली हैं
मरने के बाद इंतज़ार करने के लिए बचता कुछ भी नहीं
आओ तुम भी पढ़ लो कोई मेरी ज़िंदगी खुली किताब है
वैसे मेरे ज़िंदगी में राज़ रखने के लिए बचा कुछ भी नहीं
गले में रस्सी के फंदे डाल कर लटकने को जी चाहता है
उदासी पसंद नहीं खुश रहने के लिए बचा कुछ भी नहीं
शायद ही कोई रोएगा,उदास होगा तेरे मरने पर ‘अंकित’
तू सबको अपना मानता हैं ये तुझे समझते कुछ भी नहीं
• अंकित राज ( #Ankswrites )
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