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आम के बाग फिर से बौराए हैं,
हम लौटकर वहीं से आए हैं,
बसन्त ऋतु है, दृश्यता बसन्ती है,
मगर वो पतझडों की दास्तां छुपाए हैं।
......
खुसुर फुसुर चल रही फिजाओं में,
गिरेंगे फूल अब हर किसी की राहों में,
हमें यक़ी वक़ी तो बहुत था ही नहीं,
आज सच से भी देर तक बतियाए हैं।
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