
“उपहार”
सुनो, मन अपना उपहार स्वरूप तुम्हें देता हूँ,
रखोगे सम्भाल कर, विश्वास के साथ देता हूँ।
अश्रु तुम्हारे लेकर, वो हंसी भी तुम्हें देता हूँ,
निःस्वार्थ प्रयोजन, हर वचन के साथ देता हूँ।
सुख-दुःख के क्षण, आशाएँ भी तुम्हें देता हूँ,
स्वप्न वो संजोये मेरे, उजालों के साथ देता हूँ।
देता निज सब तुम्हें, समर्पण भी तुम्हें देता हूँ,
हर जन्म संग रहूँ, प्रेम, अमृत के साथ देता हूँ।
एक कुटिया छोटी सी, अपनें भी तुम्हें देता हूँ,
वो स्वर्ग लोक मेरा, उल्लासों के साथ देता हूँ।
मर्म अपने जीवन का, कुंजी बना तुम्हें देता हूँ,
पिरोकर रखोगे इसे, सम्मान के साथ देता हूँ।
सुनो … !!
संतप्त इस जीवन का हर सावन तुम्हें देता हूँ,
इन श्वासों का संगम, पूर्णता के साथ देता हूँ,
शेष कुछ बचा नहीं, ये अशेष भी तुम्हें देता हूँ,
उपहार प्रेम का, निज हृदय के साथ देता हूँ।
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