
“प्रेम-मंथन”
प्रेम आखर ढाई शब्द के
है बड़े लघु बोल के
मूल्य ना लगे जिसका जीवन भर
दिव्य भाव लिए
यह शब्द है देवलोक के।
प्रेम युगलों का कातर करुण स्पंदन
प्रेम अटखेलियों का आह्वाहन
प्रेम द्रुत गति से दौड़ता सुमन रथ
प्रेम मन के भाव प्रेषित करता प्रतिक्षण।
प्रेम भानु सा तपे निरंतर
प्रेम उज्ज्वल करता निश्चल मन
प्रेम जीवन प्रेषित करता निरंतर
प्रेम सूर्यमुखी युगलों का सिंचन।
प्रेम स्वछंद एक गगनचर
प्रेम दे जगत को मीठी कोलाहल
प्रेम माधुर्य रस घोले जीवन में
प्रेम कुसुमकार निर्जन जग में।
प्रेम कल कल बहता नाद
प्रेम तृष्णा को देता विराम
प्रेम शुशोभित नीले गगन में
प्रेम सजा बन वर्षा गरजते जलद में।
प्रेम बसा प्रकृति के कण कण में
प्रेम ही अमृत दूषित जगत में
प्रेम ही करे साकार निराकार को
प्रेम अलंकृत तारा शून्य व्योम में।
प्रेम की व्याख्या असम्भव है
प्रेम से राधा-मीरा का संबोधन है
प्रेम ही श्रिंगार विध्योत्तमा का
प्रेम ही ग्रंथ कालिदास का।
प्रेम मंथन से निकला अमूल्य मोती
प्रेम की कामना ईश तक को होती
प्रेम संगीत से ही धरा जागृत होती
प्रेम बिना जीवन मुक्ति कैसे होती।
प्रेम दर्पण के प्रतिबिम्ब कई
प्रेम के आनन रूपांतरित होते कई
प्रेम की परिभाषा प्रत्यक्ष कई
प्रेम के पथ कठिन-सरल है कई।
प्रेम की विवेचना कितनी करूँ
प्रेम को अंतरंग अब कैसे करूँ
प्रेम सुमुखी को कैसे प्रेषित करूँ
प्रेम की लौ जागृत कैसे करूँ।
प्रेम बसे अब मेरे स्वप्न लोक में
प्रेम रहे सज्जित मेरे बंद नयन में
प्रेम रहे मेरे श्वास हृदय रुधिर में
प्रेम मिले तेरा मुझे सातों जन्मों में।
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments