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“मेरी पहचान”
तुने क्या समझा था, क्यूँ ग़ैरत मेरी जानी नहीं,
मुसलसल ज़िंदगी मेरी, हाथ मेरा थामा नहीं,
फ़िक्र तो रात को भी चाँद की हो ही जाती है,
सुरज की आस में, दिए की क़द्र पहचानी नहीं।
हरफ़ हज़ार लिखे, एहसास कभी लिखे नहीं,
मेरी तमन्नाओं का दामन तूने कभी पकड़ा नहीं,
चंद अल्फ़ाज़ होते काफ़ी है एक दुआ के लिए,
क्या नसीब में मेरे, एक अदद वो दुआ भी नहीं।
चलो अब अपनी असली पहचान तुम्हें बताता हूँ,
अपना असली अक़्स तुम्हें आइने में दिखाता हूँ,
मेरी बातों को कोई भुलावा ना समझ लेना तुम,
आज तुम्हें मेरे कुछ एक जलवों से मिलवाता हूँ।
छोड़ ख़ुदा को, एहसान इंसान का लिया नहीं,
फ़क्र रखा हैं, नज़रें झुका कर कभी जिया No posts
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