
“मेरी पहचान”
तुने क्या समझा था, क्यूँ ग़ैरत मेरी जानी नहीं,
मुसलसल ज़िंदगी मेरी, हाथ मेरा थामा नहीं,
फ़िक्र तो रात को भी चाँद की हो ही जाती है,
सुरज की आस में, दिए की क़द्र पहचानी नहीं।
हरफ़ हज़ार लिखे, एहसास कभी लिखे नहीं,
मेरी तमन्नाओं का दामन तूने कभी पकड़ा नहीं,
चंद अल्फ़ाज़ होते काफ़ी है एक दुआ के लिए,
क्या नसीब में मेरे, एक अदद वो दुआ भी नहीं।
चलो अब अपनी असली पहचान तुम्हें बताता हूँ,
अपना असली अक़्स तुम्हें आइने में दिखाता हूँ,
मेरी बातों को कोई भुलावा ना समझ लेना तुम,
आज तुम्हें मेरे कुछ एक जलवों से मिलवाता हूँ।
छोड़ ख़ुदा को, एहसान इंसान का लिया नहीं,
फ़क्र रखा हैं, नज़रें झुका कर कभी जिया नहीं,
जीत ज़रूरी है ज़िंदगी की मंज़िलों पर ऐ दोस्त,
पाने मुक़द्दर को, हम मौक़ापरस्त कभी हुए नहीं।
तूफ़ानों से खेले हैं, हम लहरों से कभी डरे नहीं,
चट्टानों से मिज़ाज है, कच्ची मिट्टी के घड़े नहीं,
कब तक समंदर की गहराइयों का वास्ता दोगे,
चलो मान लिया किश्ती टूटी है, डूबी तो नहीं।
महफ़िलें हमसे हैं, हम वो ग़मगिन शाम तो नहीं,
शराबों और शबाब का दौर है, हम अनजान नहीं,
ज़हर के प्याले पिये अक्सर कई ज़िंदगी के हमनें,
ज़ख़्म ही तो है, क़यामत की स्याह रात तो नहीं।
सफ़र का अभी आगाज़ है, कोई अंजाम नहीं,
परिंदा आज़ाद आसमां का, कोई ग़ुलाम नहीं,
फ़लक तक अब जहां अपना है, यह जान लो,
अब मंज़िल से पहले रुकने की गुंजाइश नहीं।
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