“मैं मानव”'s image
Share0 Bookmarks 47872 Reads0 Likes

मैं मानव


मैं मानव

एक अंतहीन सोच,

कभी धृष्टकभी भ्रष्ट,

कभी मौलिक,

ना जिसका और ना छोर। 


एक अणु समग्र संसार का,

एक बिंदु इस धरा का,

अस्तित्व ही क्या मेरा,

ना कोई आलेख

ना विषय चिंतन का। 


धर्म-कर्म से बंधा हुआ,

प्रारूप नश्वरता का,

कभी आस्तिककभी नास्तिक,

एक अनदेखे बंधन से,

कुछ बंधा हुआ सा। 


क्रोधमोहलालसा से,

जकड़ा असंख्य जंजालों से,

छल-कपट भरे विचारों से,

विचलित निज भँवर में

परास्त अपने मन से। 


धुप्प फैले अंधियारों में,

बैठा क्यूँ विचारों में,

दिशा समेटे अपने मन में,

No posts

Comments

No posts

No posts

No posts

No posts