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“मैं मानव”
मैं मानव,
एक अंतहीन सोच,
कभी धृष्ट, कभी भ्रष्ट,
कभी मौलिक,
ना जिसका और ना छोर।
एक अणु समग्र संसार का,
एक बिंदु इस धरा का,
अस्तित्व ही क्या मेरा,
ना कोई आलेख,
ना विषय चिंतन का।
धर्म-कर्म से बंधा हुआ,
प्रारूप नश्वरता का,
कभी आस्तिक, कभी नास्तिक,
एक अनदेखे बंधन से,
कुछ बंधा हुआ सा।
क्रोध, मोह, लालसा से,
जकड़ा असंख्य जंजालों से,
छल-कपट भरे विचारों से,
विचलित निज भँवर में
परास्त अपने मन से।
धुप्प फैले अंधियारों में,
बैठा क्यूँ विचारों में,
दिशा समेटे अपने मन में,
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