
“ख़ामख़ा … बस यूँही”
था सोच रहा एक शाम
बैठा आँगन में
क्या वजूद है मेरा
इस जहां में
मुस्कुराहट एक खिली
चेहरे पर मेरे
ख़्याल जब यह आया
ख़ामख़ा बस यूँही।
चलो आज चले
खोजने उस वजूद को
है छिपा बैठा कहाँ
किन अंधेरों के बीच
जहां ना पहुँच पा रहा
मैं खुद
और सवाल कर रहा
ना जाने कितने
उन अनजान चेहरों से
ख़ामख़ा बस यूँही।
क्या हूँ खोया हुआ
उन इंद्रधनुषी रंगों में
या फिर छिपा किसी
खोह-खंडरों में
आज उम्मीद यही है
मेरे मन में
सामने लाऊँ प्रतिबिम्ब
उस आइने में
जो है ढका हुआ
वक़्त की धूल से
ना जाने कितने ही
ज़मानों से
कोशिश कर रहा फिर भी
ख़ामख़ा बस यूँही।
सोच भी सोच रही
उमड़ रहे ख़्याल
मेरे मन-जज़्बातों में
क्या मैं हूँ ही नहीं
किसी की बातों में
बस एक डर सा
अब रहता है
कहीं खो ही नहीं जाऊँ
उन चमकते मेलों में
जहां सिर्फ़ और सिर्फ़
मुखौटे पहने
भयानक चेहरे हैं
हक़ीक़त दिखाते
इंसानी जज़्बातों के
और बिक रहे लोग
और बिक रही ज़िंदगी
उन ख़रीददारों को
जो बोली
सबसे कम इनकी लगाते
फिर भी लड़ रहा अकेला
तनहा इन मेलों से
ख़ामख़ा बस यूँही।
कहीं सपना तो नहीं देख रहा
कोई तो जगा दो मुझे
अब और नहीं सोना
जीना है और मुझे
खुले पंख फैला
उड़ना है आस्मां में मुझे
हासिल करनी है मंज़िलें
जो कभी बस ख़्वाब थी
बनानी है पहचान अपनी
जो कभी मेरे पास ना थी
अब वजूद अपना
पुख़्ता करना इस जहां में है
शख़्सियत बेजोड़ अब
बनाना मेरी हसरतों में है
और जो भी चाहा था कभी
दबा रखा था सीने में जिसे
अब उन अरमानों को
एक बार फिर जीना है
कहने दो जिसे भी
सरफिरा, या अमली अब,
मुझे अपनी राह से
अब नहीं भटकना है।
बस इसी उधेड़बुन में
उलझता जा रहा
ना जाने कौनसे फ़साने
अब बना रहा
तभी रात के शोर ने
निकाला मुझे
उस ना ख़त्म होने वाले
तिलिस्म से
और जिसने भी देखा मुझे
डूबा उन
बेफ़िक्रे, अनजान ख़्यालों में
सवाल बस एक ही पूछा
मिज़ाज क्या है ज़नाब के
और मेरे मुँह से निकला
कुछ नहीं
ख़ामख़ा बस यूँही।
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