
“इंसान”
इंसान का ईमान क्या है, सवाल पेचीदा बड़ा है,
मज़हब पर लड़ते, देखो! आज़ अंधेरों में खड़ा है।
बाज़ार में बोली लग रही, कोड़ियों में बिक रही,
इंसान की औक़ात दिख रही, बेज़ान मरा पड़ा है।
अरे अहमक़ क्यूँ समझता ख़ुद को ख़ुदा से बड़ा है,
दौलत के नशे में चूर, बेगैरत, तू भाई से भी लड़ा है,
ईमान को बेच, अब क्या रूह का भी सौदा करेगा,
पर्दा हटा आँखों से, देख आइने के सामने खड़ा है।
बुनियाद कमज़ोर तेरी और कहता हौंसला बड़ा है,
देखा कभी खोखले पेड़ को, जो तूफ़ान से लड़ा है,
क्यूँ नासूर पालते अंदर अपने, ज़माने से नफ़रत का,
ग़ैर-मुत'आरिफ़ नहीं वो, जो उसूलों पर खड़ा है।
जमीं में मिल जाएगा एक दिन, मिट्टी का घड़ा है,
फिर ना जाने क्यूँ, तख़्तो-ताज़ से यूँ जकड़ा है,
ऊपरी साज नहीं, सोच हो ख़ूबसूरत ऐ बंदे तेरी,
वर्ना सोज़ से लिपटा, हर इंसान अकेला खड़ा है।
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