
“ग़लत संख्या”
थे बैठे भरी दोपहरी
कुछ अलसाए से, कुछ सकुचाए से,
लिए पॉकेट में एक
टिकट लॉटरी की, कुछ तुड़ी मुड़ी सी।
थी ख़रीदी जिसे मैंने
मंगलवार के हाट बाज़ार से,
दिए रुपए पूरे पाँच
देखना था सपने, झूठ होते या साँच।
था नाम लॉटरी का जो
“धनलक्ष्मी”, जपता रहता था में जो
थे छपे पूरे करोड़ एक उसमें
खोने लगा, हर पल चाह में जिसके।
ले उसे बहुत ख़ुश था
एक मदहोश करने वाला असर था
चला झूमते घर की और
जैसे गूंज रही थी, फ़तह मेरी चहुं और।
था आने वाला रिज़ल्ट
शनिवार के अख़बार के, प्रथम पुष्ट पर
सोच सोच नम्बर टिकट का
कर रहा दुआ प्रभु से, दोनों हाथ जोड़ कर।
आया शनिवार का दिन
देख अख़बार, तारे लगने लगा मैं गिन
देखा तो जीत हुई थी मेरी
एक करोड़ की लॉटरी, नाम हुई थी मेरी।
लगा उड़ने सातवें आस्मां में
चिल्ला रहा था, लिए बीवी को आग़ोश में
जीत का बिगुल बजा रहा था
एल करोड़ का गीत,
मोहल्ले में सबको सूना रहा था।
दौड़ा बच्चे को मंगाई मिट्ठाई
अरे भई, जलेबी नहीं,
देसी घी की इमरती मँगवाई
निकल पड़ा मोहल्ले में
सीना चौड़ा किए,
बाँटनें सबमें जीत की बधाई।
सबकी मुबारकें ले रहा था
सबसे हाथ मिला,
उनकी जलन भी सह रहा था
थे कई झूठी मुस्कान लिए
पहुँच गए मास्टरजी के पास,
लॉटरी के रिज़ल्ट लिए।
पहले तो मिट्ठाई दबाई
फिर मास्टरजी ने,
ऐसी ख़बर मुझे दे सुनाई
सुनते ही हो गया मैं सुन्न
हो गई काफ़ूर,
जीत की मेरी वो प्यारी सी धुन।
थे अंक टिकट में आठ
मिलाए थे अख़बार से,
जब सोया था लगा खाट
उन्ही अधखुली आँखों ने
नम्बर छः को,
था पढ़ लिया गलती से आठ।
हो गया सुन्न खड़ा खड़ा
थम गई साँसे,
और मशतिष्क मेरा बंद पड़ा
लगा चूने पसीना मुझे
अब सुनने पड़ेगी बीवी की डाँट,
और मोहल्ले का मज़ाक़ मुझे।
दौड़ा सर पर चप्पल लिए
बीवी ने जब,
घरेलू हथियार अपने हाथ में लिए
आया समझ रुपए पाँच का मोल
दिखने लगा दिन के सपने जैसा,
लॉटरी का यह झोल।
क्या भद्द हुई मोहल्ले में
मूंह छुपा कर,
आने जाने लगा अब मोहल्ले में
खा ली क़सम अब यह मैंने
ना पड़ूँगा ग़लती से भी,
लॉटरी के इस गोरख धंधे में।
अब ठोकर खाकर समझा
मेहनत के आगे,
लॉटरी को ऊपर मैंने समझा
निकल गयी दिमाग़ की धूल
वादा है आज यह सबसे,
फिर ना होगी कभी ऐसी भूल।
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