
“देह-वासन”
देह मनुष्य का पर्याय,
विचारों का निकाय,
मन-मस्तिष्क, इंद्रियाँ,
इसमें समाए,
देह, ईश्वरीय अभिप्राय।
सौंदर्य की पराकाष्ठा,
उन्मुग्ध, मंद मंद मुसकाए,
कहीं आदर का पर्याय,
कहीं आयोजन का,
देह, वासना को उकसाए।
आयोजन हो रहा क्या?
कहीं नृत्य, कभी कुकृत्य,
विभत्सता दर्शाती,
मानवता विकृत,
देह, लोलुपता का निमित्त।
वहीं किसी दिशा में बंद,
दशा-स्तिथि से पाबंद,
अंधेरों से ढकी चार दिवारी में,
अधर सूखे, आँखें नम,
देह, ग्रसित करता निधन।
कोई नोच रहा, कोई कचोट रहा,
प्रातः संध्या कोई घसीट रहा,
जीने के कुछ मूल्य के लिए,
बाधन अपने मन में लिए,
देह, कोई ख़रीद, कोई बेच रहा।
वहीं उस गली के कोने में,
एक टूटी जर्जर इमारत से,
खोल किवाड़ खिड़क के,
राह तक रहा एक टक,
देह, आज बिक जाने के लिए।
कितनी चीखें हैं दबी दीवारों में,
कितने आंसू हैं सींचें
उस खुरदुरे टूटे आँगन में,
कितनों की हुई नीलामी,
देह, के घृणित व्यवसाय में।
जिजीविषा कुंठित आत्मा की,
कुछ उन अपनों के लिए
स्वप्न जो संजोए थे कभी,
किए तर्पण, कर दनुज को अर्पण,
देह, जो उसका था कभी।
गूंजती रही पुकार, ना सुना किसी ने,
चंद सिक्कों के लालच में,
बेच दिया उस अपने ने,
विवष, लाचार, अब तड़प रहा,
देह, अब अंत को देख रहा।
नश्वर है कहा हर किसी ने,
प्रसाद प्रभु का ना माना किसी ने,
रौंद रहा पैरों की जूती से,
है नग्न नाच संग उसके कर रहा,
देह, काम-क्रोध के दंश झेल रहा।
देह, निर्मल, पवित्र काया,
कब कैसे लोभ इसमें समाया,
अब भी ना जो रुके तुम,
अब भी जो ना थमे तुम,
मानव, अभिशप्त क्या होगे तुम?
क्या कभी सुना किसी को,
उसका अंतर्मन जान ले,
भले ना करे सम्भाल उसकी,
बस एक कहा मान ले,
अब ना और व्याभिचार करो,
कुछ तो शर्म-लाज करो,
मुखौटे जो पहन रखे तुमने,
आज इनका परित्याग करो,
क्षणभंगुर की वासना का,
लोलुप मन की आसक्तता का,
मनुष्य तुम आज ले प्रण,
समाज से बहिष्कार करो।
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