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“अलविदा”
तमाशबीन इस जहां में,
कौन अपना कौन पराया,
ख़ुदगर्ज अपने मतलब के,
साथ किसने निभाया।
मंज़र दिखता लूटा हुआ सा,
ना मिला हमसाया,
ख़िलाफ़त करें किसकी,
इल्ज़ाम सबने लगाया।
सिहर उठा लहू जब,
क़ैद पिंजरे में ख़ुद को पाया,
अश्क़ आँखों में रख,
था तुम्हें हंसना सिखाया।
सम्भाला तुम्हें,
कँटीली राहों पर
चलना सिखाया,
लहरों को बांध किनारों पर,
तैरना तुम्हें बताया।
कसमसाती ज़िंदगी,
साँसें गिनी सी,
क्या पाया?
खोली बंध मुट्ठी तो,
फ़िसलती रेत को ही पाया।
ज़िस्म से रूह कचोटता,
वक़्त भी हुआ अब पराया,
सफ़र जाने कहां ले जाए,
हर और अंधेरों का साया।
कोसों दूर एक बीहड़ में,
था ख़ुद को छिपाया,
फिर क्यूँ ख़ामख़ान
तुमने अपना मकां जलाया।
पर्दाफ़ाश अब हो चुका,
सच ने आईना दिखाया,
अब अलविदा
हमारे अधूरे उस रिश्ते को
जिसे मैनें ईमान से था निभाया।
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