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“ऐ ज़िंदगी! तुझे क्या नाम दूँ?”
ऐ ज़िंदगी! तुझे क्या नाम दूँ?
सुकून कहूँ या फिर दर्द कहूँ
या कहूँ तुझे तक़दीर मेरी
जिसे मैंने कभी चाहा ही ना था।
मिली भी हो तो रेत की तरह
ठहरती ही नहीं मेरी मुट्ठी में
और में प्यासा एक साहिर तेरा
प्यास बुझती नहीं तेरी गहराई से।
बस एक एहसान तुझसे चाह रहा
कभी आज़ाद मुझे तू करदे
उड़ सकूँ मैं भी परिंदे की तरह
बस इतना सा एहतराम करदे।
ऐ ज़िंदगी! तुझे क्या नाम दूँ?
गुलिस्ताँ कहूँ या बियावान कोई
फूलों के बदले जहां काँटे ही मिले
जहां ख्वाहिशें पूरी कभी होती नहीं।
एक टक देख रहा वो तपता आस्मां
धूप ही मिली कभी बारिश ना मिली
और धुएँ से ढकी
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