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नजारा कुछ युं ही ना था देखा मैने !!!
बहारो के घटाओं मे चलती फिज़ायें,
पत्ती से मचलती खेलती जायें,
डलीयां यूं आपस मे लड़ती जायें,
पेड़ हिलता जाए जौं इन्सान,
नजारा कुछ युं ही ना था देखा मैने !!!
किनारे लगी थी दलदली सी नमीयें,
नमी पे उभरी थी गुदलीयों की हरीयालीयों,
हरीयालीयों से झगड़ती चुसती रस तितलीयां,
यूं मुस्कराती गीत गुनगुनाती जायें,
नजारा कुछ युं ही ना था देखा मैने !!!
ठहरे हुये पानी में शौक से तरंग,
जौं क्षीणीं हों आपास मे जंग,
हमने पत्थर फेंका प्यार के इरादों से,
नीले नीर से निकाली आवाज़ें,
जिनमें थी आपनों कि चाहतें,
नजारा कुछ युं ही ना था देखा मैने !!!
ग्रीष्म ऋतु मे तपती जज्बातें रेतों कि,
कड़क धूप से चमके पत्थर निकालें लै,
प्रेमी कवि बैठा रेत के जलती शुर्खीयों पे,
नजारा कुछ युं ही ना था देखा मैने !!!
नजारा कुछ युं ही ना था देखा मैने !!!
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