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वो राही जो चलते जाते हैं ,बस चलते चले जाते हैं
कभी रूकते नहीं ,कभी मुड़ते नहीं
शायद मैं भी वही राही हूं
जो बिना मंजि़ल देखे,निकल पड़ा हूं
आंखों में कुछ ख्वाब लिए,
बस निकल पड़ा हूं।
मुझे नहीं पता ,कब,कहां
कैसे मंजि़ल मिलेगी
लेकिन हर दर्द को सहने,
मैं अब निकल पड़ा हूं।
क़िस्मत मुझे आज़माए,
ऐसा होने नहीं दूंगा
क्यूंकि मैं खुद
किस्मत लिखने निकल पड़ा हूं।
मुझे किसी का डर नहीं,
कैसे मिटेगी भूख,कैसे मिटेगी प्यास
अरे!मैं उन मीठे पकवानों की,
खुशबू छोड़ बस निकल पड़ा हूं।
पता है मुझे होंगी कांटो भरी राहें,
लेकिन उन्हीं राहों पर फूल बिछाने
नंगे पैर मैं निकल पड़ा हूं।
तो क्या हुआ, आज नहीं मेरे पास दो पैसे
दो पैसे से होगा क्या साहब,
मैं तो फटी जेब लिए, पूरी दुनिया कमाने
अब निकल पड़ा हूं..
कई लोगों ने मदद की मेरी,
राहों में अडचनों का कर्ज़ देकर
बस वही कर्ज़ चुकाने ,
मैं अब निकल पड़ा हूं।
सुनी थी जो बचपन में वो कहानी
मैं भी आज वही कछुआ हूं,
जो जिंदगी के मेले में
अकेले निकल पड़ा हूं।
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