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मैं हूँ
महफ़ूज़ आज भी
डरा हुआ, सहमा हुआ
ख़ामोश, एक डायरी के
कुछ पन्नों में छुपा
मैं बाहर नहीं आता
या आना नहीं चाहता
शायद, अब भी याद है
पिछली बार डायरी से
निकलने की सज़ा
यक़ीनन मैं कोई निबंध
या लेख नहीं हूँ
किसी डायरी का
नहीं, मैं वही शख्स हूँ
जो कुछ दिन पहले
डायरी से निकलकर
शायरी किया था
उस अजनबी के नाम का!
पर नहीं
इस बार यहीं रहना है
बिना बोले - बिना सुने
बस लिखना है, रहना है
छुप के-सम्भल के
पर हाँ, मैं दब्बू नहीं हूँ
मैं दिखूँगा नहीं,
बस लिखूँगा
हाँ, बस लिखूँगा - - - - - /////
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