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तुम्हारी स्मृतियाँ मेरे भीतर
ऐसे आती है जैसे
पत्थरों पर घास उग आती हैं
और मेरे भीतर पनपती है जैसे
गर्मी की दोपहर में
सन्नाटें का शोर पनपता है।
तुम्हारी स्मृतियाँ मुझे
तुम्हारे होने का अहसास देती है
जैसे रेगिस्तान में
प्यासे को पानी दिखता है
मगर वो होता नहीं
वो केवल मृगतृष्णा होती है
उसी तरह तुम नहीं
सिर्फ तुम्हारी स्मृतियाँ होती है।
~कुलदीप
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