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हे ईश्वर करो कोई ऐसा जतन
करो बंधन समाजों के कुछ तो खतम |
हैं बड़ी रूढ़ियाँ शर्माती छोरियाँ
पौरुष मन की हैं ये जिस्म की गोटियाँ |
मन चाहे तभी जी भर खेलते,
कैसे तोड़ें समाजों की ये बेड़ियाँ ||
ना छोड़े सगे ना पड़ौसी भाई,
मनोरंजन बनी है रिश्तों की खाई |
थाने - कचहरी - कानून - कायदे
न
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