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तुम्हें सोचूँ तो लगता हैं जैसे
गुलज़ार की कोई मख़मली नज़्म
उन्ही के मख़मली आवाज़ में
सुन रहीं हूँ..
तुम्हारी आँखें,
मानो मुक़द्दस आयतें हो कोई
चाँद की मिश्री में घुली हुई
तुम्हारी आवाज़..
बारिश की बूँदों में हैं
तुम्हारे लम्स के
मख़मली एहसास..
तुम..तुम हो या हो कोई
तिलिस्म-ए-होश-रुबा !!
-किरण के. ✍
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