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रस्ता मिला न मंज़िल रहबर की रहबरी में ।
हम यूँ भटक रहे हैं सहरा-ए-जिंदगी में ।।
तुम तैर कर तो देखो सूखी हुई नदी में ।
फर्क़ आएगा समझ में खुश्की में और तरी में ।।
शौक़-ए-तलब की शायद मेराज हो गई है ।
दीवाना खो गया है महबूब की गली में ।।
फूलों की खुशबूओं से महरूम है जो अब तक ।
वह शाख़ आ गई है एहसास-ए-कमतरी में ।।
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