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प्रेम बहती नदी है,बंद तालाब नहीं। इसे परमार्थ के महानदी में मिलने दे।
स्वार्थ के संपुट में बंद प्रेम महज प्रेमाभास है प्रेम ऊपर चढ़े तो शक्ति है और नीचे गिरे तो आशक्ति।प्रेम रागात्मक है,वासनात्मक नहीं हमारा सारा प्रेम शुभ के लिए होना चाहिए हम व्यक्ति से प्रेम नहीं करते,उसमें निहित आदर्श से प्रेम करते है।
साधू की साधुता में ही प्रेम को मत देखे,बल्कि दुष्ट की दुष्टता में भी प्रेम को निहारने की साधना करें।
सूर्य प्रेमवश जीवनदायिनी किरणें विसर्जित करता है मेघ भेद भाव के बगैर सभी के खेतों में बरसता है नदी प्यास मिटाने के लिए निरन्तर बहती है इस प्रेम के बदले वह हमसे कुछ नहीं चाहते।
"प्रेम,प्रेम के लिये होना चाहिए यह भाव भी नहीं होना चाहिए कि वह प्रेम कर रहा है प्रेम में केवल देना ही देना है लेना कुछ भी नहीं।"
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