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प्रेम बहती नदी है,बंद तालाब नहीं। इसे परमार्थ के महानदी में मिलने दे।
स्वार्थ के संपुट में बंद प्रेम महज प्रेमाभास है प्रेम ऊपर चढ़े तो शक्ति है और नीचे गिरे तो आशक्ति।प्रेम रागात्मक है,वासनात्मक नहीं हमारा सारा प्रेम शुभ के लिए होना चाहिए हम व्यक्ति से प्रेम नहीं करते,उसमें निहित आदर्श से प्रेम करते है।
साधू की साधुता में ही प्रेम को मत दे
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