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सांसों के दो तार से तुम
मैं मांझी पतवार से तुम
मैं गुलशन गुलनार से तुम
मैं कटार मेरे धार से तुम
मुझे पूर्ण करते हो यूं ही
मेरे मूल आधार से तुम,
चेहरे की मुस्कान हो तुम
गायक का मृदुगान हो तुम
खुदमें ही तूफ़ान हो तुम
बस खुदसे अंजान हो तुम
तुम पर आकर ठहर गई मैं
किसी मुनि का ध्यान हो तुम,
मृगतृष्णा की माया से तुम
चांद की शीतल काया से तुम
कड़ी धूप में चलती पथिक मैं
किसी वृक्ष के छाया से तुम,
विजय घोष उदगान हो तुम
किसी रसिक के रसखान हो तुम
एक स्वछंद पंछी की तरह मैं
मेरा खुला आसमान हो तुम.....
@kavyatiwari
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