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यों ‘वर्द्धमान’ हुए महावीर - अतुल कनक

OpinionOpinion April 13, 2022
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ऐसा क्यों होता है कि पुरूष को जब इस बात की अनुभूति होती है कि स्त्री उससे कुछ जटिलताओं के सरलार्थ जानना चाहती है, वह स्वयं अधिक दुरूह हो जाता है और पुरूष का यह दुरूह होना ज्यों - ज्यों अधिक गहन होता जाता है, स्त्री के अंतस में उसके प्रति आसक्ति भाव अधिक सघन होता जाता है? स्त्री समर्पण में सुख पाती है, तभी तो वह आनंद को सृजन में परिवर्तित कर पाती है। चूँकि उसमें अपना सर्वस्व दे देने का औदात्य है, इसीलिये प्रकृति ने उसे गृहण करने की सामर्थ्य का वरदान दिया है। पुरूष में दाता होने की अहमन्यता है, इसलिये वह आधान देता है- धारण नहीं कर सकता। कुछ धारण करने के लिये तो धरती सा धैर्य चाहिये। पुरूष में इस धैर्य को धारण करने की सामर्थ्य आ जाती है तो वह धर्म का धैवत हो जाता है। लेकिन धर्म का धैवत होने के पहले सामर्थ्य का षड्ज, ऋद्धियों का ऋषभ, गरिमा का गांधार , महनीयता का मध्यम और पवित्रता का पंचम भी साधना पड़ता है। सरगम अपनी यात्रा धैवत से प्रारंभ नहीं करती। उसे सा-रे-ग-म-प के पड़ावों से पहले व्यतीत होना पड़ता है।

त्रिशला अपने सौभाग्य के स्वामी सिद्धार्थ के रहस्यमय स्मित के सम्मोहन में न मालूम कितनी अवधि तक खोई रहतीं, लेकिन पार्श्व में लेटे नन्हें राजकुमार की एक किलक ने उनकी चेतना को लौटा दिया। जिसका जन्म जगत् को भ्रम और सम्मोहन से मुक्ति की राह पर ले जाने को हुआ हो, वह अपनी माँ की चेतना को सम्मोहन से बिंधते देख भला चुप कैसे रहता? त्रिशला ने अपने आत्मांश की ओर देखा। लेकिन वह तो गहन निद्रा में था। फिर त्रिशला की चेतना को वास्तविकता के धरातल पर लाने के लिये किलकारी किसने भरी थी? त्रिशला ने कौतुहल से सिद्धार्थ की ओर देखा। उनके अधरों पर तो अब भी वही मंद स्मित था। त्रिशला असमंजस में पड़ गई। पिता- पुत्र का सम्यकत्व उनके ममत्वजनित मोह के साथ कोई क्रीड़ा कर रहा था या उन्हें स्वयं ही कुछ भ्रम हो रहे थे?

तभी सिद्धार्थ का धीर-गंभीर स्वर गुँजायमान हुआ - ‘‘अपने दुलारे को क्या संबोधन देना चाहोगी देवी?’’

त्रिशला ने तो शिशु जन्मोपरांत इस संबंध में कुछ विचार ही नहीं किया था। इसीलिये पुनः असमंजस में पड़ गईं। गर्भावस्था में उन्होंने अनेक अवसरों पर एकांत में अपने अजन्मे शिशु से संवाद किये थे और कितने ही नाम उसके लिये सोचे थे, जिसे ज्ञानियों और शकुन-शास्त्रियों ने अवतारी बताया था। लेकिन वो सभी संबोधन तो एक माँ के उत्तप्त वात्सल्य के अवलंबन थे। कुण्डलपुर के राजकुमार के नामकरण का अवसर तो एक दिव्य उत्सव का हैतुक होगा। माँ ने एकांत में जो अनेक संबोधन दिये हैं- उनका क्या ? हर माँ अपनी संतति को भाँति- भाँति के संबोधन देती है- किन्तु प्रेम के अमृत में भीगे हुए वो संबोधन तो केवल ममत्व के सार्थवाह होते हैं। त्रिशला स्मरण करने लगीं कि गर्भावस्था में उन्होंने इस शिशु को क्या क्या नाम दिये थे। उधर त्रिशला को देर तक मौन पाकर सिद्धार्थ ने पूछ ही लिया -‘‘किस विचार में खो गईं देवी?’’‘‘कुछ नहीं आर्य।’’ त्रिशला बोलीं। जिसके जन्म से ही देवो द्वारा प्रक्षालन के आख्यान का सुख जुड़ गया हो- क्या हम में इतनी सामर्थ्य है कि हम उसका नामकरण कर सकें?’’

‘‘आप इस शिशु की जननी हैं देवी। आपने संपूर्ण गर्भकाल इस शिशु को अपनी कुक्षि में धारण किया है। आपकी सामर्थ्य के सम्मुख देवता भी नत-मस्तक हैं। प्रारब्ध ने यह सुख आपके पुण्यों के आधार पर ही सृजित किया होगा। कोई पुण्यों की प्रभावना का पोषक हो या सकल सृष्टि के साम्राज्य का अधिपति- अपनी माँ को गर्भावस्था की अवधि में दिये गये कष्टों के ऋण से सहज ही मुक्त नहीं हो सकता। यह तो माँ ही होती है, जो अपनी पीड़ा को भी संतति के भविष्य के सृजन का अवसर मानकर हर्षित होती है। इसीलिये तो माँ के चरणों में सकल सुखों का आश्रय कहा गया है। माना कि जीवात्मा भी जन्म के पूर्व के नौ माह तक माँ की कुक्षि के सीमित तिमिराच्छादित क्षैत्र में अत्यंत सिकुड़ कर रहने का कष्ट पाता है लेकिन मनुष्य जीवन के लिये यह कष्ट तो अपरिहार्य है। किसी माँ के पुण्यों की सामर्थ्य पर प्रश्नचिन्ह कौन आरोपित कर सकता है देवी?’’ सिद्धार्थ ने कहा!

सिद्धार्थ की बात सुन त्रिशला गौरवानुभूति से पूरित हो उठीं। उन्होंने एक कृतज्ञ दृष्टि से सिद्धार्थ की ओर देखा और दोनों के मध्य अनायास ही एक स्नेहसिक्त हास्य विसरित हो गया। सिद्धार्थ ने संवाद का सूत्र थामने के लिये पुनः प्रश्न किया -‘‘क्या वास्तव में कुण्डलपुर की महारानी ने अपने प्रिय पुत्र के लिये किसी नाम का चिंतन नहीं किया है?’’

‘‘ऐसा नहीं है आर्य!, चिंतन तो निरंतर किया है। कदाचित् प्रकृति ने प्रत्येक स्त्री को यह स्वभाव दिया है कि गर्भावस्था में वह होने वाले शिशु को लेकर अनेकानेक स्वप्न गढ़ती है, उससे मन ही मन निरंतर संवाद करती है और उसे संबोधित करने के लिये नित नूतन नामकरण भी करती है। प्रकृति और परिवेश में जो कुछ भी शुभ है, सौंदर्यपूर्ण है, सार्थक है, समृद्ध है, सामर्थ्यवान है - स्त्री उस हर अवलंबन में अपनी संतति की छवि का अवलोकन करती है और उसी के अनुकूल अपनी संतति के नामकरण का संकल्प भी करती है। गर्भाधान से शिशु जन्म तक यों ही सहस्त्रों नाम एक माँ के हृदय तंतुओं को झंकृत करते रहते हैं। मेरा गर्भकाल भी इस प्रवृत्ति से अस्पर्श्य नहीं रहा।’’ देवी त्रिशला मुखर हुईं तो मानो अंतस की सभी अनुभूतियों को अनावृत्त करने लगीं। वो केवल अपने मन की नहीं, संसार की समस्त माताओं के मन की बात कह रही थीं। सिद्धार्थ उनके इस उत्साह और उल्

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