
भाषाऐं हमारी सांस्कृतिक अस्मिता और सामाजिक जीवन की प्रतीक भी होती हैं। किसी भी भाषा समुदाय का दीर्घ अनुभव उसकी अभिव्यक्ति में परिलक्षित होता है। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि हिन्दी हमारी सांस्कृतिक शुचिता का प्रतीक है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि हिन्दी भाषियों द्वारा उपयोग में लिये जाने वाले सभी अपशब्द हिन्दी से इतर भाषा के हैं। हिन्दी भाषा में तो कोई गाली है ही नहीं। शायद इसलिए कि गालियाँ हिन्दी के संस्कारों का संवहन करने की सामर्थ्य नहीं रखती। हिन्दी रसखान, कबीर, मीरा, तुलसी, सूर, जायसी, विद्यापति, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त या सुमित्रानंदन पंत, बच्चन, रेणु, दिनकर जैसे संस्कृति संवर्धकों की भाषा रही है। इस भाषा में कलुष का स्पर्श संभव ही नहीं था। शायद यही कारण रहा कि देश की आजादी के बाद जब संविधान सभा की बैठकें हुईं तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विदी, काका कालेलकर, राजेन्द्र सिंहा जैसे विद्वानों ने हिन्दी को उसका यथोचित सम्मान दिलाने के लिये राष्ट््रभाषा का दर्जा दिये जाने की माँग की। हालाँकि संविधान में हिन्दी को राष्ट््रभाषा का दर्जा नहीं दिया गया लेकिन 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने देवनागरी लिपि में लिखी गई हिन्दी भाषा को भारत में राजकाज की अधिकारिक भाषा घोषित कर दिया गया और यह निर्णय ही हिन्दी दिवस के आयोजन की आधारशिला बनी। संविधान का अनुच्छेद 343 और भाग 17 अधिकारिक भाषा के बारे में स्थिति स्पष्ट करते हैं जबकि अनुच्छेद 351 राजय को निर्देशित करता है कि वह हिन्दी को लोकप्रिय बनाने, उसे संरक्षण देने और उसके उपयोग को प्रोत्साहन देने की दिशा में जिम्मेदारी से कार्य करे। लेकिन स्वतंत्रता के बाद हमारे लोकतंत्र ने जिन विसंगतियों को सर्वाधिक सहन किया है, उनमें एक यह भी है कि महत्वपूर्ण मसलों पर भी सरकारी तंत्र की कार्यप्रणाली केवल लकीर को पीटने वाली रहती है। हिन्दी के संरक्षण या हिन्दी को प्रोत्साहन के लिये जिन नवाचारों की आवश्यकता थी, उन्हें समुचित तौर पर नहीं अपनाया गया या फिर सामर्थ्यवान लोगों ने उपलब्ध हुए अवसरों को रेवड़ियों की तरह इस तरह बाँटा कि राजस्थान के पिछले दौर के महत्वपूर्ण कवि जमना प्रसाद ठाड़ा राही को एक गीत में लिखना पड़ा - नारों के बल नाव नहीं, चल सकती कभी पठारों पर/ कितने ही जयघोष लिखें हम पत्थर की दीवारों पर।’’
भले ही हिन्दी को संरक्षण देने की दिशा में किये गये सरकारी प्रयास अपनी अभीष्ट भूमिका नहीं निभा सके हों लेकिन जन-मन में हिन्दी की जो पैठ है वह हिन्दी की सबसे बड़ी शक्तियों में एक है। इसीलिये हिन्दी को आमआदमी की उम्मीदों की भाषा भी कहा जा सकता है। आँकड़े हिन्दी को करीब 43 करोड़ लोगों की भाषा बताते हैं लेकिन हिन्दी का संसार इन आँकड़ों से भी व्यापक है। फिजी, मारीशस, त्रिनिदाद, टौबेगो, गुयाना, नेपाल और सूरीनाम जैसे देशों में हिन्दी अधिकारिक भाषा है। कनाडा, अमरीका, ग्रेट ब्रिटेन और अरब देशों में भी हिन्दीभाषी बड़ी संख्या में हैं और यही कारण है कि इन देशों में हिन्दी कविसम्मेलन आयोजित होते रहते हैं। मॉरीशस में तो विश्व हिन्दी सचिवालय नाम से एक संस्था का संचालन किया जाता है। हिन्द
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