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अंतिम अरण्य में आशाऐं और अवसाद - अतुल कनक

OpinionOpinion September 28, 2021
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कुछ समय पहले एक खबर ने हर संवेदनशील व्यक्ति को स्पंदित किया था। मुंबई के पॉश इलाके लोखंडवाला की एक बहुमंजिला ईमारत में रहने वाली एक बुजुर्ग महिला का बेटा लंबे समय बाद अमरीका से लौटा तो बहुत पुकारने के बाद भी फ्लैट का दरवाजा नहीं खुला। डुप्लीकेट चाबी से दरवाजा खोला गया तो अंदर बुजुर्ग महिला का कंकाल निकला अर्थात् तमाम संपन्नताओं के बावजूद उस वृद्धा की मृत्यु कई दिन पहले हो चुकी थी। बेटे ने बताया कि करीब साल भर पहले उसने जब माँ से बात की थी तो माँ स्वस्थ थी। अर्थात् पिछले करीब एक साल से बेटे को अकेली रह रही माँ से बात करने तक की फुर्सत नहीं मिली थी। संचार क्रांति के इस दौर में जबकि दुनिया के किसी भी कोने से अपने प्रियजनों से बात करना बहुत आसान हो गया है, यदि बेटा यह कहे कि उसने साल भर पहले ही माँ से बात की थी तो उस माँ की किस्मत पर तरस आता है जिसने कदाचित अपने टेलीफोन को निहारते हुए ही इस उम्मीद में हमेशा के लिये आँखें मूँद लीं कि कभी तो बेटे की पहल पर उसके टेलीफोन की घंटी बजेगी।

भारतीय संस्कृति में बुजुर्ग माता-पिता की सेवा को बहुत पुण्य का कार्य माना गया है। कहानी कहती है कि श्रवण कुमार के अंधे माता-पिता की इच्छा तीर्थयात्रा की हुई तो श्रवण कुमार ने उन्हें कांवड़ में बैठा कर तीर्थ दर्शन करवाए थे। साक्षात् परमात्मा का अवतार कहे जाने वाले अयोध्या के राजकुमार रामचंद्र ने पिता की एक आज्ञा सुनकर चौदह वर्ष के लिये वनवास स्वीकार कर लिया था। गंगापुत्र भीष्म ने भी अपने पिता की एक युवती के प्रति आसक्ति के बाद पनपे प्रसंगों में पिता की इच्छा पूरी करने के लिये आजीवन ब्रह्चर्य का अखण्ड व्रत ले लिया था।हमारा प्राचीन वांग्मय माँ और मातृभूमि की महिमा को स्वर्ग के सुखों से बढ़कर बताता है और समाज है कि अपने बुजुर्गों के प्रति ही उपेक्षा भाव से भर गया है। क्या यह विसंगति नहीं है कि नौ महीने अपनी कोख में पालकर जीवन देने वाली माँ की खैरियत जानने का ख्याल बेटे के मन में साल भर तक नहीं आता ? मैं अपनी उम्र के साढ़े चार दशक पूरा कर चुका हूँ और स्वयं एक किशोर वयस्का पुत्री का पिता हूँ लेकिन आज भी जब कभी ऑफिस से घर लौटने में देरी हो जाती है, अपनी बुजुर्ग माँ को घर के मुख्य दरवाजे के पास खड़ा पाता हूँ।संस्कृत की एक प्रसिद्ध उक्ति के अनुसार माता कभी कुमाता नहीं होती, लेकिन यह कैसा दौर आया है कि संतति में कुसंतति होने की होड़ सी मची दिखती है? अपना समय काटने की गर्ज से पार्क की बैंचों पर लंबे समय तक बैठे रहकर बतियाने वाले या घर के पास ही स्थित किसी मंदिर की सेवा चाकरी में समय बिताने वाले बुजुर्गों की बातें सुनें तो सहसा उनके मन में अपनी सतत उपेक्षा के कारण पनपा दर्द छलक आता है।

बुजुर्ग होना, जीवन के अंतिम अरण्य में विचरना होता है। यह वह समय होता है जब शरीर की सामर्थ्य चुकने लगती है लेकिन जीवन अपनी संपूर्ण प्रभा के साथ खिलखिलाता है। दुर्दम्य बीमारियों के बावजूद जीवन की यह खिलखिलाहट अपने अंत तक कायम रहती है। चूँकि प्रायः बुजुर्ग अपने व्यवसायिक या नौकरी संबंधी दायित्वों से मुक्त हो चुके होते हैं, इसलिये

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