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लम्हों की क़ीमत बताते हुए अनुपम खेर ने सुनाई यह कविता
ज़िंदगी से लम्हे चुरा बटुए में रखता रहा
फ़ुर्सत से खर्चुंगा बस यही सोचता रहा
उधड़ती रही जेब, करता रहा तुरपाई
फिसलती रही खुशियां, करता रहा भरपाई
एक दिन फुरसत पाई सोचा
ख़ुद को आज रिझाऊं
बर्षों से जो जोड़े
वो लमहे खर्च कर आऊं
खोला बटुआ लमहे ना थे
जाने कहां रीत गए
मैंने तो खर्चे नहीं
जाने कैसे बीत गए
फुर्सत मिली थी सोचा
ख़ुद से ही मिल आऊं
आइने में देखा जो
पहचान ही न पाऊं
ध्यान से देखा बालों पे
चांदी सा चढ़ा था
था तो मुझ जैसा
जाने कौन खड़ा था
(अनुपम खेर के सोशल मीडिया अकाउंट से साभार)
- हमें यह शायरी सोशल मीडिया से हासिल हुई है। हमें इसके रचयिता का नाम पता नहीं है। अगर आपको इस बारे में जानकारी है तो हमें सूचित करें, हमें नाम सार्वजनिक करने में प्रसन्नता होगी।
From Amar Ujala Kavya!
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