
1. श्री कृष्ण जी की तारीफ़ में
है सबका ख़ुदा सब तुझ पे फ़िदा ।
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।
हे कृष्ण कन्हैया, नन्द लला !
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।
इसरारे हक़ीक़त यों खोले ।
तौहीद के वह मोती रोले ।
सब कहने लगे ऐ सल्ले अला ।
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।
सरसब्ज़ हुए वीरानए दिल ।
इस में हुआ जब तू दाखिल ।
गुलज़ार खिला सहरा-सहरा ।
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।
फिर तुझसे तजल्ली ज़ार हुई ।
दुनिया कहती तीरो तार हुई ।
ऐ जल्वा फ़रोज़े बज़्मे-हुदा ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।
मुट्ठी भर चावल के बदले ।
दुख दर्द सुदामा के दूर किए ।
पल भर में बना क़तरा दरिया ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।
जब तुझसे मिला ख़ुद को भूला ।
हैरान हूँ मैं इंसा कि ख़ुदा ।
मैं यह भी हुआ, मैं वह भी हुआ ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।
ख़ुर्शीद में जल्वा चाँद में भी ।
हर गुल में तेरे रुख़सार की बू ।
घूँघट जो खुला सखियों ने कहा ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।
दिलदार ग्वालों, बालों का ।
और सारे दुनियादारों का ।
सूरत में नबी सीरत में ख़ुदा ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।
इस हुस्ने अमल के सालिक ने ।
इस दस्तो जबलए के मालिक ने ।
कोहसार लिया उँगली पे उठा ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।
मन मोहिनी सूरत वाला था ।
न गोरा था न काला था ।
जिस रंग में चाहा देख लिया ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।
तालिब है तेरी रहमत का ।
बन्दए नाचीज़ नज़ीर तेरा ।
तू बहरे करम है नंद लला ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।
2. जनम कन्हैया जी
है रीत जनम की यों होती, जिस घर में बाला होता है।
उस मंडल में हर मन भीतर सुख चैन दोबाला होता है॥
सब बात बिथा की भूले हैं, जब भोला-भाला होता है।
आनन्द मंदीले बाजत हैं, नित भवन उजाला होता है॥
यों नेक नछत्तर लेते हैं, इस दुनियां में संसार जनम।
पर उनके और ही लच्छन हैं जब लेते हैं अवतार जनम॥1॥
सुभ साअ़त से यों दुनियां में अवतार गरभ में आते हैं।
जो नारद मुनि हैं ध्यान भले सब उनका भेद बताते हैं।
वह नेक महूरत से जिस दम इस सृष्टि में जन्मे जाते हैं।
जो लीला रचनी होती है वह रूप यह जा दिखलाते हैं॥
यों देखने में और कहने में, वह रूप तो बाले होते हैं।
पर बाले ही पन में उनके उपकार निराले होते हैं॥2॥
यह बात कही जो मैंने, अब यों समझो इसको ध्यान लगा।
है पण्डित पुस्तक बीच लिखा, था कंस जो राजा मथुरा का॥
धन ढेर बहुत बल तेज निपट, सामान अनेक और डील बड़ा।
गज और तुरंग अच्छे नीके अम्बारी होदे जीन सजा॥
जब बन ठन ऊंचे हस्ती पर, वह पापी आन निकलता था।
सब साज़ झलाझल करता था, और संग कटक दल चलता था॥3॥
एक रोज़ जो अपने भुज बल पर, वह कंस बहुत मग़रूर हुआ।
और हंस कर बोला दुनियां में, है दूजा कौन बली मुझ सा॥
एक बान लगाकर पर्बत को, चाहूं तो अभी दूं पल में गिरा।
इस देस के बड़ बल जितने हैं, है कौन जो मुझसे होवे सिवा॥
जो दुष्ट कोई आ जुद्ध करे, कब मो पर वाका ज़ोर चले।
वह सामने मेरे ऐसा हो, जों चींटी हाथी पांव तले॥4॥
वह ऐसे ऐसे कितने ही, जो बोल गर्व के कहता था।
सब लोग सभा के सुनते थे, क्या ताब जो बोले कोई ज़रा॥
था एक पुरुष वह यों बोला, तू भूला अपने बल पर क्या?।
जो तेरा मारन हारा है, सो वह भी जनम अब लेवेगा॥
तू अपने बल पर हे मूरख, इस आन अबस अहंकार किया।
वह तुझको मार गिरावेगा यों, जैसे भुनगा मार लिया॥5॥
यह बात सुनी जब कंस ने वां, तब सुनकर उसके होश उड़े।
भय मन के भीतर आन भरा और बोल गरब सिगरे बिसरे॥
यों पूछा वह किस देस में है और कौन भवन आकर जन्मे।
कौन उसके मात पिता होवे, जो पालें उसको चाहत से॥
वह बोला मथुरा नगरी में, एक रोज़ जनम वह पावेगा।
जब स्याना होगा तब तुझको एक पल में मार गिरावेगा॥6॥
यह बात सुनाई कंस को फिर, फिर आठ लकीरें वां खींची।
बसुदेव पिता का नाम कहा, और देवकी माता ठहराई॥
उन आठ लकीरों की बातें, फिर कंस को उसने समझाई।
सब छोरा छोरी देवकी के, हैं जग में होते आठ यों ही॥
बल तेज गरब में तूने तो, सब कारज ज्ञान बिसारा है।
जो पाछे रेखा खींची है, वह तेरा मारन हारा है॥7॥
इस बात को सुनकर कंस बहुत, तब मन में अपने घबराया।
जब नारद मुनि उस पास गए, तब उनसे उसने भेद कहा॥
तब नारद मुनि ने भी उसको, कुछ और तरह से समझाया।
फिर कंस को वां इस बात सिवा कुछ और न मारग बन आया॥
जो अपनी जान बचाने का कर सोच यह उसने फंद किया।
बुलवा बसुदेव और देवकी को, एक मन्दिर भीतर बंद किया॥8॥
जब कै़द किया उन दोनों को, तब चौकीदार दिये बिठला।
एक आन न निकसन पावे यह, फिर उन सबको यह हुक्म दिया॥
सामान रसोई का जो था सब उनके पास दिया रखवा।
और द्वार दिये उस मन्दिर के, तब भारी ताले भी जड़वा॥
हुशियार लगे यों रहने वां नित चौकी के देने हारे।
क्या ताब जो कोठे छज्जे पर एक आन परिन्दा पर मारे॥9॥
भय बैठा था जो कंस के मन वह भर कर नींद न सोता था।
कुछ बात सुहाती ना उसको नित अपनी पलक भिगोता था॥
उस मन्दिर में उन दोनों के, जब कोई बालक होता था।
कंस आन उसे झट मारे था, मन मात पिता का रोता था॥
इक मुद्दत तक उन दोनों का, उस मन्दिर में यह हाल रहा।
जो बालक उनके घर जन्मा, सो मारता वह चंडाल रहा॥10॥
फिर आया वाँ एक वक़्त ऐसा जो आए गर्भ में मनमोहन।
गोपाल, मनोहर, मुरलीधर, श्रीकिशन, किशोर न कंवल नयन॥
घनश्याम, मुरारी, बनवारी, गिरधारी, सुन्दर श्याम बरन।
प्रभुनाथ बिहारी कान्ह लला, सुखदाई, जग के दुःख भंजन॥
जब साअत परगट होने की, वां आई मुकुट धरैया की।
अब आगे बात जनम की है, जै बोलो किशन कन्हैया की॥11॥
था नेक महीना भादों का, और दिन बुध, गिनती आठन की।
फिर आधी रात हुई जिस दम और हुआ नछत्तर रोहिनी भी॥
सुभ साअत नेक महूरत से, वां जनमे आकर किशन जभी।
उस मन्दिर की अंधियारी में, जो और उजाली आन भरी॥
बसुदेव से बोली देवकी जी, मत डर भय मन में ढेर करो।
इस बालक को तुम गोकुल में, ले पहुंचो और मत देर करो॥12॥
जो उसके तुम ले जाने में, यां टुक भी देर लगाओगे।
वह दुष्ट इसे भी मारेेगा, पछताते ही रह जाओगे॥
इस आन संभल कर तुम, इसको जो गोकुल में पहुंचाओगे।
इस बात में यह फल पाओगे, जो इसकी जान बचाओगे॥
वां गोकुल वासी जो इसको, ले अपनी गोद संभालेगा।
कुछ नाम वह इसका रख लेगा और मेहर दया से पालेगा॥13॥
जो हाल यह वां जा पहुंचेगा, तो इसका जी बच जावेगा।
जो करम लिखी है तो फिर भी, मुख हमको आन दिखावेगा॥
जिस घर के बीच पलेगा यह, वह घर हमको बतलावेगा।
हम इससे मिलने जावेंगे, यह हमसे मिलने आवेगा॥
नाम काम हमें कुछ दावा से न झगड़ा और परेखे से।
जब देखने को मन भटके गा, सुख पावेंगे उसके देखे से॥14॥
है आधी रात अभी तो यां ले जाओ इसे तुम हाल उधर।
लिपटा लो अपनी छाती से, दे आओ जाके और के घर॥
मन बीच उन्हों के था यह डर, दिन होवेगा तो कंस आकर।
एक आन में उसको मारेगा, रह जावेंगे हम आंसू भर॥
यह बात न थी मालूम उन्हें यह बालक जग निस्तारेगा।
कब मार सकेगा कंस इसे, यह कंस को आपही मारेगा॥15॥
जब देवकी ने बसदेव से वां, रो रो कर तब यह बात कही।
वह बोले क्यों कर ले जाऊं, है बाहर तो चौकी बैठी॥
और द्वार लगे हैं ताले कुल, कुछ बात नहीं मेरे बस की।
तब देवकी बोली "ले जाओ मन ईश्वर की रख आस अभी"॥
वह बालक को जब ले निकले, सब सांकर पट पट छूट गए।
थे ताले जितने द्वार लगे, उस आन झड़ाझड़ टूट गए॥16॥
जब आए चौकीदारों में तब वां भी यह सूरत देखी।
सब सोते पाए उस साअत, हर आन जो देते थे चौकी॥
जब सोता देखा उन सबको, हो निरभै निकले वां से भी।
फिर आए जमना तीर ज्योंहीं, फिर जमना देखी बहुत चढ़ी॥
यह सोच हुआ मन बीच उन्हें, पैर इस जल में कैसे धरिए।
है रैन अंधेरी संग बालक, इस बिपता में अब क्या करिए॥17॥
यों मन में ठहरा फिर चलिए, फिर आप ही मन मज़बूत हुआ।
भगवान दया पर आस लगा, वां जमना जी पर ध्यान धरा॥
यह जों जों पांव बढ़ाते थे, वह पानी चढ़ता आता था।
यह बात लगी जब होने वां, बसुदेव गए मन में घबरा॥
तब पांव बढ़ाए बालक ने जो आपसे और भीगे जल में।
जब जमना ने पग चूम लिये, जा पहुंचे पार वह इक पल में॥18॥
जब आन बिराजे गोकुल में, सब फाटक वां भी पाए खुले।
तब वां से चलते चलते, वह फिर नन्द के द्वारे आ पहुंचे॥
वां नन्द महल के द्वारे भी, सब देखे पट-पट द्वार खुले।
जो चौकी वाले सोते थे, अब कौन उन्हें रोके टोके॥
जब बीच महल के जा पहुंचे, सब सोते वां घर वाले थे।
हर चार तरफ़ उजियाली थी, जों सांझ में दीवे बाले थे॥19॥
इक और अचम्भा यह देखो, जो रात जनम श्रीकिशन की थी।
उस रात जशोदा के घर भी जन्मी थी यारो इक लड़की॥
वां सोते देख जशोदा को और बदली कर इस बालक की।
उस लड़की को वह आप उठा, ले निकले आये मथुरा जी॥
जब लड़की लाए मन्दिर में, सब ताले मन्दिर लाग उठे।
जो चौकी देने वाले थे, फिर वह भी उस दम जाग उठे॥20॥
जब भोर हुई तब घबरा कर, सुध कंस ने ली उस मन्दिर की।
जब ताले खुलवा बीच गया, तब लड़की जन्मी एक देखी॥
ले हाथ फिराया चक्कर दे तो पटके, वह बिन पटके ही।
यों जैसे बिजली कौंदे हैं जब छूट हवा पर जा पहुंची॥
यह कहती निकली "ऐ मूरख, क्या तूने सोच बिचारा है।
वह जीता अब तो सीस मुकुट, जो तेरा मारन हारा है"॥21॥
जब कंस ने वां यह बात सुनी, मन बीच बहुत सा लजियाया।
जो कारज होने वाला है, वह टाले से कब है टलता॥
सौ फ़िक्र करो, सौ पेच करो, सौ बात सुनाओ, हासिल क्या।
हर आन वही यां होना है, जो माथे के है बीच लिखा॥
हैं कहते बुद्धि जिसे अब यां, वह सोच बड़े ठहराती है।
तक़दीर के आगे पर यारो, तदबीर नहीं काम आती है॥22॥
अब नन्द के घर की बात सुनो, वां एक अचम्भा यह ठहरा।
जो रात को जन्मी थी लड़की और भोर को देखा तो लड़का॥
घुड़नाले छूटी नाच हुआ, और नोबत का गुल शोर मचा।
फिर किशन गरग ने नाम रखा, सब कुनबे के मिल बैठे आ॥
नंद और जसोदा और कवात, करने वां हेरा फेर लगे।
पकवान मिठाई मेवे के, नर नारी आगे ढेर लगे॥23॥
सब नारी आई गोकुल की और पास पड़ोसिन आ बैठीं।
कुछ ढोल मज़ीरे लाती थीं, कुछ गीत जचा के गाती थीं॥
कुछ हर दम मुख इस बालक का बलिहारी होकर देख रहीं।
कुछ थाल पंजीरी के रखतीं, कुछ सोंठ सठौरा करतीं थीं॥
कुछ कहती थी "हम बैठे हैं नेग आज के दिन का लेने को"।
कुछ कहतीं "हम तो आए हैं, आनन्द बधावा देने को"॥24॥
कोई घुट्टी बैठी गरम करे, कोई डाले इस्पन्द और भूसी।
कोई लायी हंसली और खडुवे, कोई कुर्ता टोपी मेवा घी॥
कोई देखे रूप उस बालक का, कोई माथा चूमे मेहेर भरी।
कोई भोंवों की तारीफ़ करे कोई आंखों की, कोई पलकों की॥
कोई कहती उम्र बड़ी होवे, ऐ बीर! तुम्हारे बालक की।
कोई कहती ब्याह बहू लाओ, इस आस मुरादों वाले की॥25॥
कोई कहती बालक खू़ब हुआ ऐ बहना! तेरी नेक रती।
यह बाले उनको मिलते हैं, जो दुनियां में हैं बड़ भागी॥
इस कुनबे को भी शान बढ़ी और भाग खड़े इस घर के भी।
यह बातें सबकी सुन सुनकर, यह बात जसोदा कहती थी॥
ऐ बीर! यह बालक जो ऐसा, अब मेरे घर में जन्मा है।
कुछ और कहूं मैं क्या तुमसे, भगवान को मोपे कृपा है॥26॥
थी कोने कोने खु़शवक़्ती और तबले ताल खनकते थे।
कोई नाच रही, कोई कूद रही, कोई हंस-हंस के कुछ रूप सजे॥
हर चार तरफ आनन्दें थीं, वां घर में नंद-जसोदा के।
कुछ आंगन बीच बिराजें थीं, कोई बैठी कोठे और छज्जे॥
सौ खू़बी और खु़श हाली से दिखलाती थी सामान खड़ी।
सच बात है बालक होने की, है दुनियां में आनन्द बड़ी॥27॥
फिर और खु़शी की बात हुई जब रीत हुई दधिकांदों की।
रखवाई दूध की मटकी भर और डाली हल्दी बहुतेरी॥
यह इस पर फेंके भर-भर कर, वह उस पर डाले घड़ी-घड़ी।
कोई पीछे मुख और बाहन को कोई सिखरनी फेंकें और मठड़ी॥
इस विधि की भी रंग रलियों में रूप और हुआ नर-नारी का।
और तन के अबरन यों भीगे ज्यों रंग हो केसर क्यारी का॥28॥
सुख मंडल में यह धूम मची, और बाहर नेगी जोगी भी।
कुछ नाचें भांड भगतिए भी, कुछ हिजड़े पावें बेल बड़ी॥
आनन्द बधावे बाज रहे, नरसिंगे सुरना और तुरई।
रंगीन सुनहरे पालने भी ले हाथ खड़े कितने बिरती॥
हर आन उठाती थीं मानिक, क्या गिनती रूपे-सोने की।
नंद और जसोदा ने ऐसी, की शादी बालक होने की॥29॥
जो नेगी-जोगी थे उनको उस आन निपट खु़श हाल किया।
पहराये बागे रेशम के, और ज़र भी बख़्शा बहुतेरा॥
और जितने नाचने वाले, असबाब उन्हें भी खू़ब दिया।
मेहमान जो घर में आए थे, सब उनका भी अरमान रखा॥
दिन-रात छटी के होने तक, मन खु़श किया लोग-लुगाई का।
भर थाल रुपे और मोहरें दीं, जब नेग चुकाया दाई का॥30॥
नंद और जसोदा बालक को, वां हाथों छांव में थे रखते।
नित प्यार करें तन मन वारें, सुनहरी अबरन गहने बाँके॥
जी बहलाते मन परचाते और खू़ब खिलौने मंगवाते।
हर आन झुलाते पालने में, वह ईधर और ऊधर बैठे॥
कर याद "नज़ीर" अब हर साअत, उस पालने और उस झूले की।
आनन्द से बैठो चैन करो, जय बोलो कान्ह झंडूले की॥31॥
3. बालपन-बाँसुरी बजैया का
यारो सुनो ! ये दधि के लुटैया का बालपन ।
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन ।।
मोहन-सरूप निरत करैया का बालपन ।
बन-बन के ग्वाल गौएँ चरैया का बालपन ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।1।।
ज़ाहिर में सुत वो नंद जसोदा के आप थे ।
वरना वह आप माई थे और आप बाप थे ।।
परदे में बालपन के यह उनके मिलाप थे ।
जोती सरूप कहिए जिन्हें सो वह आप थे ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।2।।
उनको तो बालपन से न था काम कुछ ज़रा ।
संसार की जो रीति थी उसको रखा बचा ।।
मालिक थे वो तो आपी उन्हें बालपन से क्या ।
वाँ बालपन, जवानी, बुढ़ापा, सब एक सा ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।3।।
मालिक जो होवे उसको सभी ठाठ याँ सरे ।
चाहे वह नंगे पाँव फिरे या मुकुट धरे ।।
सब रूप हैं उसी के वह जो चाहे सो करे ।
चाहे जवाँ हो, चाहे लड़कपन से मन हरे ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।4।।
बाले हो ब्रज राज जो दुनियाँ में आ गए ।
लीला के लाख रंग तमाशे दिखा गए ।।
इस बालपन के रूप में कितनों को भा गए ।
इक यह भी लहर थी कि जहाँ को जता गए ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।5।।
यूँ बालपन तो होता है हर तिफ़्ल का भला ।
पर उनके बालपन में तो कुछ और भेद था ।।
इस भेद की भला जी, किसी को ख़बर है क्या ।
क्या जाने अपने खेलने आए थे क्या कला ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।6।।
राधारमन तो यारो अजब जायेगौर थे ।
लड़कों में वह कहाँ है, जो कुछ उनमें तौर थे ।।
आप ही वह प्रभू नाथ थे आप ही वह दौर थे ।
उनके तो बालपन ही में तेवर कुछ और थे ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।7।।
वह बालपन में देखते जिधर नज़र उठा ।
पत्थर भी एक बार तो बन जाता मोम सा ।।
उस रूप को ज्ञानी कोई देखता जो आ ।
दंडवत ही वह करता था माथा झुका झुका ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।8।।
परदा न बालपन का वह करते अगर ज़रा ।
क्या ताब थी जो कोई नज़र भर के देखता ।।
झाड़ और पहाड़ देते सभी अपना सर झुका ।
पर कौन जानता था जो कुछ उनका भेद था ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।9।।
मोहन, मदन, गोपाल, हरी, बंस, मन हरन ।
बलिहारी उनके नाम पै मेरा यह तन बदन ।।
गिरधारी, नंदलाल, हरि नाथ, गोवरधन ।
लाखों किए बनाव, हज़ारों किए जतन ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।10।।
पैदा तो मधु पुरी में हुए श्याम जी मुरार ।
गोकुल में आके नन्द के घर में लिया क़रार ।।
नन्द उनको देख होवे था जी जान से निसार ।
माई जसोदा पीती थी पानी को वार वार ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।11।।
जब तक कि दूध पीते रहे ग्वाल ब्रज राज ।
सबके गले के कठुले थे और सबके सर के ताज ।।
सुन्दर जो नारियाँ थीं वे करती थीं कामो-काज ।
रसिया का उन दिनों तो अजब रस का था मिज़ाज ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।12।।
बदशक्ल से तो रोके सदा दूर हटते थे ।
और ख़ूबरू को देखके हँस-हँस चिमटते थे ।।
जिन नारियों से उनके ग़मो-दर्द बँटते थे ।
उनके तो दौड़-दौड़ गले से लिपटते थे ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।13।।
अब घुटनियों का उनके मैं चलना बयाँ करूँ ।
या मीठी बातें मुँह से निकलना बयाँ करूँ ।।
या बालकों में इस तरह से पलना बयाँ करूँ ।
या गोदियों में उनका मचलना बयाँ करूँ ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।14।।
पाटी पकड़ के चलने लगे जब मदन गोपाल ।
धरती तमाम हो गई एक आन में निहाल ।।
बासुक चरन छूने को चले छोड़ कर पताल ।
अकास पर भी धूम मची देख उनकी चाल ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।15।।
थी उनकी चाल की जो अ़जब, यारो चाल-ढाल ।
पाँवों में घुंघरू बाजते, सर पर झंडूले बाल ।।
चलते ठुमक-ठुमक के जो वह डगमगाती चाल ।
थांबे कभी जसोदा कभी नन्द लें संभाल ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।16।।
पहने झगा गले में जो वह दखिनी चीर का ।
गहने में भर रहा गोया लड़का अमीर का ।।
जाता था होश देख के शाही वज़ीर का ।
मैं किस तरह कहूँ इसे चॊरा अहीर का ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।17।।
जब पाँवों चलने लागे बिहारी न किशोर ।
माखन उचक्के ठहरे, मलाई दही के चोर ।।
मुँह हाथ दूध से भरे कपड़े भी शोर-बोर ।
डाला तमाम ब्रज की गलियों में अपना शोर ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।18।।
करने लगे यह धूम, जो गिरधारी नन्द लाल ।
इक आप और दूसरे साथ उनके ग्वाल बाल ।।
माखन दही चुराने लगे सबके देख भाल ।
की अपनी दधि की चोरी घर घर में धूम डाल ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।19।।
थे घर जो ग्वालिनों के लगे घर से जा-बजा ।
जिस घर को ख़ाली देखा उसी घर में जा फिरा ।।
माखन मलाई, दूध, जो पाया सो खा लिया ।
कुछ खाया, कुछ ख़राब किया, कुछ गिरा दिया ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।20।।
कोठी में होवे फिर तो उसी को ढंढोरना ।
गोली में हो तो उसमें भी जा मुँह को बोरना ।।
ऊँचा हो तो भी कांधे पै चढ़ कर न छोड़ना ।
पहुँचा न हाथ तो उसे मुरली से फोड़ना ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।21।।
गर चोरी करते आ गई ग्वालिन कोई वहाँ ।
और उसने आ पकड़ लिया तो उससे बोले हाँ ।।
मैं तो तेरे दही की उड़ाता था मक्खियाँ ।
खाता नहीं मैं उसकी निकाले था चूँटियाँ ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।22।।
गर मारने को हाथ उठाती कोई ज़रा ।
तो उसकी अंगिया फाड़ते घूसे लगा-लगा ।।
चिल्लाते गाली देते, मचल जाते जा बजा ।
हर तरह वाँ से भाग निकलते उड़ा छुड़ा ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।23।।
ग़ुस्से में कोई हाथ पकड़ती जो आन कर ।
तो उसको वह सरूप दिखाते थे मुरलीधर ।।
जो आपी लाके धरती वह माखन कटोरी भर ।
ग़ुस्सा वह उनका आन में जाता वहीं उतर ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।24।।
उनको तो देख ग्वालिनें जी जान पाती थीं ।
घर में इसी बहाने से उनको बुलाती थीं ।।
ज़ाहिर में उनके हाथ से वह ग़ुल मचाती थीं ।
पर्दे में सब वह किशन के बलिहारी जाती थीं ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।25।।
कहतीं थीं दिल में दूध जो अब हम छिपाएँगे ।
श्रीकिशन इसी बहाने हमें मुँह दिखाएँगे ।।
और जो हमारे घर में यह माखन न पाएँगे ।
तो उनको क्या गरज़ है यह काहे को आएँगे ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।26।।
सब मिल जसोदा पास यह कहती थी आके बीर ।
अब तो तुम्हारा कान्ह हुआ है बड़ा शरीर ।।
देता है हमको गालियाँ फिर फाड़ता है चीर ।
छोड़े दही न दूध, न माखन, मही न खीर ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।27।।
माता जसोदा उनकी बहुत करती मिनतियाँ ।
और कान्ह को डराती उठा बन की साँटियाँ ।।
जब कान्हा जी जसोदा से करते यही बयाँ ।
तुम सच न जानो माता, यह सारी हैं झूटियाँ ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।28।।
माता कभी यह मेरी छुंगलियाँ छुपाती हैं ।
जाता हूँ राह में तो मुझे छेड़ जाती हैं ।।
आप ही मुझे रुठातीं हैं आपी मनाती हैं ।
मारो इन्हें ये मुझको बहुत सा सताती हैं ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।29।।
माता कभी यह मुझको पकड़ कर ले जाती हैं ।
गाने में अपने साथ मुझे भी गवाती हैं ।।
सब नाचती हैं आप मुझे भी नचाती हैं ।
आप ही तुम्हारे पास यह फ़रयादी आती हैं ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।30।।
एक रोज़ मुँह में कान्ह ने माखन झुका दिया ।
पूछा जसोदा ने तो वहीं मुँह बना दिया ।।
मुँह खोल तीन लोक का आलम दिखा दिया ।
एक आन में दिखा दिया और फिर भुला दिया ।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।31।।
थे कान्ह जी तो नंद जसोदा के घर के माह ।
मोहन नवल किशोर की थी सबके दिल में चाह ।।
उनको जो देखता था सो कहता था वाह-वाह ।
ऐसा तो बालपन न हुआ है किसी का आह ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।32।।
सब मिलकर यारो किशन मुरारी की बोलो जै ।
गोबिन्द छैल कुंज बिहारी की बोलो जै ।।
दधिचोर गोपी नाथ, बिहारी की बोलो जै ।
तुम भी ‘नज़ीर’ किशन बिहारी की बोलो जै ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।33।।
4. बाँसुरी
जब मुरलीधर ने मुरली को अपनी अधर धरी।
क्या-क्या प्रेम प्रीति भरी इसमें धुन भरी॥
लै उसमें राधे-राधे की हर दम भरी खरी।
लहराई धुन जो उसकी इधर और उधर ज़री॥
सब सुनने वाले कह उठे जय जय हरी-हरी।
ऐसी बजाई किशन कन्हैया ने बांसरी॥1॥
कितने तो उसकी सुनने से धुन हो गए धनी।
कितनों की सुध बिसर गई जिस दम बह धुन सुनी॥
कितनों के मन से कल गई और व्याकुली चुनी।
क्या नर से लेके नारियां, क्या कूढ़ क्या गुनी॥
सब सुनने वाले कह उठे जय जय हरी-हरी।
ऐसी बजाई किशन कन्हैया ने बांसरी॥2॥
जिस आन कान्हा जी को यह बंसी बजावनी।
जिस कान में वह आवनी वां सुध भुलावनी॥
हर मन की होके मोहनी और चित लुभावनी।
निकली जहां धुन, उसकी वह मीठी सुहावनी॥
सब सुनने वाले कह उठे जय जय हरी-हरी।
ऐसी बजाई किशन कन्हैया ने बांसरी॥3॥
जिस दिन से अपनी बंशी वह श्रीकिशन ने सजी।
उस सांवरे बदन पे निपट आन कर फबी॥
नर ने भुलाया आपको, नारी ने सुध तजी।
उनकी उधर से आके वह बंसी जिधर बजी॥
सब सुनने वाले कह उठे जय जय हरी-हरी।
ऐसी बजाई किशन कन्हैया ने बांसरी॥4॥
ग्वालों में नंदलाल बजाते वह जिस घड़ी।
गौऐं धुन उसकी सुनने को रह जातीं सब खड़ी॥
गलियों में जब बजाते तो वह उसकी धुन बड़ी।
ले ले के इतनी लहर जहां कान में पड़ी॥
सब सुनने वाले कह उठे जय जय हरी-हरी।
ऐसी बजाई किशन कन्हैया ने बांसरी॥5॥
बंसी को मुरलीधर जी बजाते गए जिधर।
फैली धुन उसकी रोज़ हर एक दिल में कर असर॥
सुनते ही उसकी धुन की हलावत इधर उधर।
मुंह चंग और नै की धुनें दिल से भूल कर॥
सब सुनने वाले कह उठे जय जय हरी-हरी।
ऐसी बजाई किशन कन्हैया ने बांसरी॥6॥
बन में अगर बजाते तो वां थी यह उसकी चाह।
करती धुन उसकी पंछी बटोही के दिल में राह॥
बस्ती में जो बजाते तो क्या शाम क्या पगाह।
पड़ते ही धुन वह कान में बलिहारी होके वाह॥
सब सुनने वाले कह उठे जय जय हरी-हरी।
ऐसी बजाई किशन कन्हैया ने बांसरी॥7॥
कितने तो उसकी धुन के लिए रहते बेक़रार।
कितने लगाए कान उधर रखते बार-बार॥
कितने खड़े हो राह में कर रहते इन्तिज़ार।
आए जिधर बजाते हुए श्याम जी मुरार॥
सब सुनने वाले कह उठे जय जय हरी-हरी।
ऐसी बजाई किशन कन्हैया ने बांसरी॥8॥
मोहन की बांसुरी के मैं क्या क्या कहं जतन।
लय उसकी मन की मोहनी धुन उसकी चित हरन॥
उस बांसुरी का आन के जिस जा हुआ बजन।
क्या जल पवन "नज़ीर" पखेरू व क्या हिरन॥
सब सुनने वाले कह उठे जय जय हरी-हरी।
ऐसी बजाई किशन कन्हैया ने बांसरी॥9॥
5. खेलकूद कन्हैया जी का (कालिय-दमन)
तारीफ़ करूं मैं अब क्या क्या उस मुरली अधर बजैया की।
नित सेवा कुंज फिरैया की और बन बन गऊ चरैया की॥
गोपाल बिहारी बनवारी दुख हरना मेहर करैया की॥
गिरधारी सुन्दर श्याम बरन और हलधर जू के भैया की॥
यह लीला है उस नंद ललन, मनमोहन जसुमत छैया की।
रख ध्यान सुनो डंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की॥1॥
एक रोज़ खु़शी से गेंद तड़ी की, मोहन जमुना तीर गए।
वां खेलन लागे हंस-हंस के, यह कहकर ग्वाल और बालन से॥
जो गेंद पड़े जा जमना में फिर जाकर लावे जो फेकें।
वह आपी अन्तरजामी थे क्या उनका भेद कोई पावे॥
यह लीला है उस नंद ललन, मनमोहन जसुमत छैया की।
रख ध्यान सुनो डंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की॥2॥
वां किशन मदन मनमोहन ने सब ग्वालन से यह बात कही।
और आपही से झट गेंद उठा उस काली दह में डाल दई॥
फिर आपही झट से कूद पड़े और जमुना जी में डुबकी ली।
सब ग्वाल सखा हैरान रहे, पर भेद न समझें एक रई॥
यह लीला है उस नंद ललन, मनमोहन जसुमत छैया की।
रख ध्यान सुनो डंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की॥3॥
यह बात सुनी ब्रज बासिन ने, तब घर घर इसकी धूम मची।
नंद और जसोदा आ पहुंचे, सुध भूल के अपने तन मन की॥
आ जमुना पर ग़ुल शोर हुआ और ठठ बंधे और भीड़ लगी।
कोई आंसू डाले हाथ मले, पर भेद न जाने कोई भी॥
यह लीला है उस नंद ललन, मनमोहन जसुमत छैया की।
रख ध्यान सुनो डंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की॥4॥
जिस दह में कूदे मन मोहन, वां आन छुपा था एक काली।
सर पांव से उनके आ लिपटा, उस दह के भीतर देखते ही॥
फन मारे कई और ज़ोर किये और पहरों तक वां कुश्ती की।
फुंकारे ली बल तेज किये, पर किशन रहे वां हंसते ही॥
यह लीला है उस नंद ललन, मनमोहन जसुमत छैया की।
रख ध्यान सुनो डंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की॥5॥
जब काली ने सो पेच किये फिर एक कला वां श्याम ने की।
इस तौर बढ़ाया तन अपना जो उसका निकसन लागा जी॥
फिर नाथ लिया उस काली को एक पल भर भी ना देर लगी।
वह हार गया और स्तुति की, हर नागिन भी फिर पांव पड़ी॥
यह लीला है उस नंद ललन, मनमोहन जसुमत छैया की।
रख ध्यान सुनो डंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की॥6॥
उस दह में सुन्दर श्याम बरन उस काली को जब नाथ चुके।
ले नाथ को उसकी हाथ अपने, हर फन के ऊपर निरत गए॥
कर अपने बस में काली को मुसकाने मुरली अधर धरे।
जब बाहर आये मनमोहन, सब खु़श हो जय जय बोल उठे॥
यह लीला है उस नंद ललन, मनमोहन जसुमत छैया की।
रख ध्यान सुनो डंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की॥7॥
थे जमुना पर उस वक़्त खड़े, वां जितने आकर नर नारी।
देख उनको सब खु़श हाल हुए, जब बाहर निकले बनवारी॥
दुख चिन्ता मन से दूर हुए आनन्द की आई फिर बारी।
सब दर्शन पाकर शाद हुए और बोले जय जय बलिहारी॥
यह लीला है उस नंद ललन, मनमोहन जसुमत छैया की।
रख ध्यान सुनो डंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की॥8॥
नंद ओर जसोदाा के मन में, सुध भूली बिसरी फिर आई।
सुख चैन हुए दुख भूल गए कुछ दान और पुन की ठहराई॥
सब ब्रज बासिन के हिरदै में आनन्द ख़ुशी उस दम छाई।
उस रोज़ उन्होंने यह भी "नज़ीर" एक लीला अपनी दिखलाई॥
यह लीला है उस नंद ललन, मनमोहन जसुमत छैया की।
रख ध्यान सुनो डंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की॥9॥
6. कन्हैया जी की रास
क्या आज रात फ़रहतो इश्रत असास है।
हर गुल बदन का रंगींओज़र्री लिबास है॥
महबूब दिलबरों का हुजूम आस पास है।
बज़्मेतरब है ऐश है फूलों की बास है॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥1॥
बिखरे पड़ें हैं फ़र्श पे मुक़्कैश और ज़री।
बजते हैं ताल घुंघरुओं मरदंग खंजरी॥
सखियाँ फिरें हैं ऐसी कि जूं हूर और परी।
सुन सुन के उस हुजूम में मोहन की बांसरी॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥2॥
आए हैं धूम से जो तमाशे को गुल बदन।
गोया कि खिल रहे हैं गुलों के चमन-चमन॥
करते हैं नृत्य कुंज बिहारी व सद बरन।
और घुंघरुओं की सुन के सदाएँ छनन छनन॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥3॥
पहुंचे हैं आस्मां तईं मरदंग की गमक।
आवाज़ घुंघरुओं की क़यामत झनक झनक॥
करती है मस्त दिल को मुकुट की हर एक झलक।
ऐसा समां बंधा है कि हर दम ललक ललक॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥4॥
हलक़ा बनाके किशन जो नाचे हैं हाथ जोड़।
फिरते हैं इस मजे़ से कि लेते हैं दिल मरोड़॥
आकर किसी को पकड़े हैं, दे हैं किसी को छोड़।
यह देख देख किशन का आपस में जोड़ जोड़॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥5॥
नाचे हैं इस बहार से बन ठन के नंद लाल।
सर पर मुकुट बिराजे हैं, पोशाक तन में लाल॥
हंसते हैं छेड़ते हैं हर एक को दिखा जमाल।
सखियों के साथ देख के यह कान्ह जी का हाल॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥6॥
है रूप किशन जी का जो देखो अजब अनूप।
और उनके साथ चमके है सब गोपियों का रूप॥
महताबियां छूटें हैं गोया खिल रही है धूप।
इस रोशनी में देख के वह रूप और सरूप॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥7॥
हंसती हुई जो फिरती हैं साथ उनके गोपियां।
हैं राधा उनमें ऐसी कि तारों में चन्द्रमा॥
करती है कृष्ण जी से हर एक आन, आन बां।
आपस में उनके रम्ज़ोइशारात का करके ध्यां॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥8॥
यूं यक तरफ़ खु़शी से जो करते हैं नृत्य कान्ह।
और यक तरफ़ को राधिका जी बा हज़ार शान॥
आपस में गोपियों के खुले हैं निशान बान।
दिल से पसन्द करके उस अन्दाज का समान॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥9॥
गर मान-लीला देखो तो दिल से है पुर बहार।
और राधे जी का रूठना और किशन की पुकार॥
बाहम कब्त का पढ़ना व अन्दोहे बे शुमार।
इस हिज्र इस फ़िराक़ पे, सौ जी से हो निसार॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥10॥
लीला यहां तलक हैं कहां तक लूं उनका नाम।
करते हैं किशन राधे बहम उनका इख़्तिताम॥
दर्शन उन्होंके देख के हैं मस्त ख़ासो आम।
दंडौत करके बादएफ़र्हत के पी के जाम॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥11॥
इस शहर में ‘नज़ीर’ जो बेकस ग़रीब है।
रहता है मस्त हाल में अपने बगै़र मै॥
शब कोा गया था रास में कुछ करके राह तै।
जाकर जो देखता है तो वां सच है, करके जै॥
हर आन गोपियों का यही मुख बिलास है।
देखो बहारें आज कन्हैया की रास है॥12॥
7. ब्याह कन्हैया का
जहां में जिस वक़्त किशन जी की, अवस्था सुध बुध की यारो आई।
संभाला होश और हुए सियाने, वह बालपन की अदा भुलाई॥
हुआ क़द उनका कुछ इस तरह से, कि कु़मरी जिसकी फ़िदा कहाई।
निकालीं तर्जे़ फिर और ही कुछ, बदन की सज धज नई बनाई॥
हुए खु़शी नंद अपने मन में बहुत हुई खु़श जशोदा माई॥1॥
जो सुध संभाली तो किशन क्या क्या, लगे फिर अपनी छबें दिखाने।
जगह-जगह पर लगे ठिठकने, अदा से बंसी लगे बजाने॥
वह बिछड़ी गौओं को साथ लेकर, लगे खु़शी से बनों में जाने।
जो देखा नंद और जसोदा ने यह कि श्याम अब तो हुए सियाने॥
यह ठहरी दोनों के मन में आकर करें अब उनकी कहीं सगाई॥2॥
फिर आप ही वह यह मन में सोचे कि इनकी अब ऐसी जा हो निस्बत।
बड़ा हो घर दर, बड़े हों सामां, बहुत हो दौलत, बहुत हो हश्मत॥
हमारे गोकुल में है जो ख़ूबी, इसी तरह की हो उसकी हुर्मत।
वह लड़की जिससे कि हो सगाई, सो वह भी ऐसी हो खूबसूरत॥
हैं जैसे सुन्दर किशोर मोहन नवल दुलारे, कंुवर कन्हाई॥3॥
कई जो नारी वह बूढ़ियां थीं, जसोदा जी ने उन्हें बुलाया।
किसी को ईधर किसी को उधर सगाई ढूंढ़न कहीं भिजाया॥
जो भेद था अपने मन के भीतर, सो उन सभों के तईं जताया।
फिरीं बहुत ढूंढ़ती वह नारी यह थाा जसोदा ने जो सुनाया॥
न देखा वैसा घर इक उन्होंने न वैसी कोई दुलारी पाई॥4॥
वह नारियां जब यूंही आई तो बोली यूं और एक नारी।
है वह जो बरसाना इसमें हैगी बृषभानु की नवल दुलारी॥
है राधिका नाम उसका कहते बहुत है सुन्दर निपट पियारी।
कही यह मैंने तो बात तुमसे अब आगे मर्ज़ी जो हो तुम्हारी॥
करो सगाई लगन की उस जा कि इसमें हैगी बहुत भलाई॥5॥
यह सुन जसोदा ने जब खु़शी हो उधर को नारी कई पठाई।
चलीं वह गोकुल से दिल में खु़श हो वहीं वह बरसाने बीच आई॥
जहां वह घर कि बयां किया था वह नारियां सब उधर को धाई।
उन्होंने आदर बहुत सा करके मन्दिर के भीतर वह सब बिठाई॥
जो बैठी यह तो लगीं सुनाने, इधर उधर की बहुत बड़ाई॥6॥
जो कह चुकीं यह इधर उधर की तो फिर सगाई की बात खोली।
बड़े हो तुम भी, बड़े हैं वह भी, यह बात होवे तो खू़ब होगी॥
है जैसा सुन्दर उन्होंका लड़का, तुम्हारी सुन्दर है वैसी लड़की।
इधर भी दौलत उधर भी हश्मत, खुशी व खूबी तरह तरह की॥
उन्होंने अपनी बहुत जमाई, पर उनके दिल में न कुछ समाई॥7॥
जो राधिका की वह मां थीं कीरत यह सुनके बातें वह बोलीं हँस कर।
वह ऐसे क्या हैं जो अब हमारे जस और दौलत के हों बराबर॥
हैं जैसे वह तो सो ऐसे हैंगे हमारे घर के तो कितने चाकर।
हम अपनी लड़की उन्हें न देंगे, वह ऐसा क्या घर वह ऐसा क्या बर॥
करो हमारे न घर में तुम यां, अब इस सगाई की तब कहाई॥8॥
सुना जब उन नारियों ने यह तो चलीं इधर से वह शर्म खायी।
बहुत ही मन में हो सुस्त अपने, वह फिरके गोकुल के बीच आई॥
सुनी जो बातें थी वां उन्होंने, वह सब जसोदा को आ सुनाई।
यह बातें सुनकर जसोदा मन में बहुत ख़फ़ा हो बहुत लजाई॥
सिवाय ख़फगी[4] के आगे कुछ वां, जसोदा माई से बन न आई॥9॥
जब उस सगाई न होने से वां बुरा जसोदा ने मन में माना।
तो भेद उनका कला से अपनी यह बिन जताये ही हरि ने जाना॥
कहा यह मन में कि कोई लीला को चाहिए अब उधर दिखाना।
बना के मोहन सरूप नित प्रति ही खू़ब बरसाने बीच जाना॥
गए वही हरि फिर उस मकां में और अपनी बंसी वह जा बजाई॥10॥
बजी जो मोहन की बांसुरी वां तो धुन कुछ इसकी अजब ही निकली।
पड़ी वह जिस-जिस के कान में आ, उसे सुध अपने बदन की बिसरी॥
भुलाई बंसी ने कुछ तो सुध-बुध, उधर झलक जो सरूप की थी।
हर एक तरफ़ को हर एक मकां पर, झलक वह हरि की कुछ ऐसी झमकी॥
कि जिसकी हर एक झलक के देखे, तमाम बस्ती वह जगमगाई॥11॥
सहेलियों संग राधिका जी, कहीं उधर को जो आन निकली।
सरूप देखा वह किशन जी का, उधर से उनकी सुनी वह मुरली॥
जूं ही वहाँ राधिका जी आई, सो ऐसी मोहन ने मोहनी की।
दिखाया अपना सरूप ऐसा, कि उनकी सूरत को देखते ही॥
इधर तो राधा के होश खोये, हर एक सहेली की सुध भुलाई॥12॥
दिखाके रूप और बजा के मुरली, फिर आये गोकुल में नंद लाला।
फिर एक कला की वह कितने दिन में, कि राधा गोरी को माँदा डाला॥
बहुत दवाऐं उन्होंने की वां, पै फ़ायदे ने न सर निकाला।
फिर आप मोहन ने बैद बनकर, दवा की थैली को वां संभाला॥
पुकारे बरसाने बीच जाकर कि अच्छी करते हैं हम दवाई॥13॥
इधर थे हारे दवाएं करके, सुनी उन्होंने जो बात उनकी।
बुलाके जल्दी मन्दिर के भीतर दिखाई राधा जो वह दुखी थी॥
उन्होंने वा कुछ दवा भी दी और दिखाए कुछ छू छू मंतरे भी।
पढ़ंत क्या थी वह एक कला थी, हुई वहीं अच्छी राधिका जी॥
हर एक ने की वाह-वाह हर दम, और अपनी गर्दन बहुत झुकाई॥14॥
हुई जो चंगी वह राधिका जी, तो सब मन्दिर में खु़शी बिराजी।
वह वृषभानु और सभी कुटुम के, यह बात मन बीच आके ठहरी॥
कि राधिका की सगाई इनसे करें तो हैगी यह बात अच्छी।
जो रस्म होती सगाई की है, वह सब उन्होंने खु़शी से कर दी॥
"नज़ीर" कहते हैं इस तरह से हुई है श्री किशन की सगाई॥15॥
8. दसम कथा (रुक्मनी का ब्याह)
ऐ दोस्तो! यह हाल सुनो ध्यान रख ज़रा।
और हर तरफ़ से ध्यान के तईं टुक इधर को ला॥
चर्चा है इसका वास्ते सबके तईं भला।
कहता हूं मैं यह अगले ज़माने का माजरा।
है नाम इस बयान का यारो दसम कथा॥1॥
सुकदेव ने कथा यह पहले परीक्षत से है कही।
उसने सुनी तो उसका हुआ दिल बहुत खु़शी॥
फिर भीकम एक राजा मन्दिर की थी मन्दिरी।
थे पांच बेटे उसके बहुत सुन्दर और बली॥
घर बार उसका दौलतोहश्मत से भर रहा॥2॥
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