
कितने अनमोल ख़ज़ाने की हिफ़ाज़त में हैं
लोग जो सारे ज़माने से बग़ावत में हैं
नाम रिश्ते का नहीं है तो कोई बात नहीं
क्या यही कम है कि दो लोग मोहब्बत में हैं
ज़रूरत है रखो हरदम दीये छत की मुँडेरों पर
सितारे अपने वादों से मुकर जाएँ तो क्या होगा
तुम्हें आदत है सच कहने की, अच्छा है, मगर सोचो
अगर ये सच ग़लत हाथों में पड़ जाएँ तो क्या होगा
है इस क़दर भी कोई आजकल ख़फ़ा हमसे
हमारे शहर में आकर, नहीं मिला हमसे
मुहब्बत ऐसी शै है, जिसको हर सरहद समझती है
कहीं जाऊँ तुम्हारी याद का वीज़ा नहीं लगता
आजकल कौन साथ देता है
शुक्रिया ! साथ निभाने वाले
हो आसमाँ को मुबारक़ ये चाँद और तारे
मेरा चराग़ मेरी देख-भाल करता है
ज़रूरी तो नहीं हर इक दफ़ा हो मर्द ही मुजरिम
अभी औरत के अंदर भी कहीं, शैतान बाक़ी है
बुज़ुर्गों के किए हर फ़ैसले पर तुम नज़र रखना
बुढ़ापे में सुना है, बचपना भरपूर करते हैं
न हम ही मुकम्मल न तुम ही मुकम्मल
चलो माफ़ कर दें हम इक दूसरे को
किसी की उम्र उसकी मुस्कुराहट से पता करिये
भला ये आंकड़ा कब दिन- महीनों से निकलता है
जो भी टूटा है, वो टूटा है सँवरने के लिए
कौन रोता है तेरी याद में मरने के लिए
मुद्दतों से हूँ अधूरा, शेर मैं उसके बिना
था वही मिसरा-ए-सानी, अब कहाँ मानेगा वो
ये सब हालात के मारे हुए कुछ लोग हैं वरना
भला कोई नहीं होता, बुरा कोई नहीं होता
ये इन्सानों की बस्ती है, सभी को ख़ाक होना है
किसी को पूजना कैसा, ख़ुदा कोई नहीं होता
आकाश के खाली हिस्से में इक चाँद उगाता रहता हूँ
दिल के सूने से आँगन में यूँ ईद मनाता रहता हूँ
है बे-अदब जो ये दुनिया तो ग़म नहीं हमको
ये ज़िन्दगी हमें झुक कर सलाम करती है
तुम ख़ता को ख़ता मान लो, इसमें कोई बुराई नहीं
फ़ैसला इक ग़लत हो गया, भूल थी बेवफ़ाई नहीं
दिल के टुकड़ों में भी आबाद कहीं है कुछ तो
दिल अगर टूट चुका है तो सलामत क्या है
आज जब गुज़रा, तेरी गलियों से मुद्दत बाद मैं
तू बहुत रोयी बिछड़कर, खिड़कियाँ कहने लगीं
थोड़ा- मोड़ा सबमें मज़हब होता है
दिल बारूदों से खाली कब होता है
यहाँ से हो के तरक़्क़ी गुज़रने वाली है
वो रास्ते में जो इक पेड़ था, कटा कि नहीं
हमने बस हाथ पाँव मारे थे
और देखा, तो हम किनारे थे
रिश्तों में हम इंसाँ कब रह पाते हैं
अच्छे-अच्छे लोग ख़ुदा हो जाते हैं
हमने तो कुछ शेर कहे बस उल्फ़त में
पैसे वाले ताजमहल बनवाते हैं
जीने ही कोई देगा, न आएगी मुझको मौत
ये दौर मुझको चाहने वालों का दौर है
इश्क़ में सबने पड़ के देखा है
हमने लेकिन बिछड़ के देखा है
एक दुनिया तो कम पड़ेगी हमें
अब जो तुझसे बिछड़ के जीना
एक हम ही नहीं जो ऐसे हैं
सारे शायर ख़राब होते हैं
वक़्त कुछ और शै ही होती है
तेरे हाथों में बस घड़ी है दोस्त
उम्र भर हमने मुहब्ब्बत की इबादत की है
अब हम इस उम्र में अल्लाह नहीं बदलेंगे
अब तक उसके सर कोई इल्ज़ाम नहीं
शाइर अच्छा है, लेकिन दरबारी है
रिश्ते जिनमें पल-पल घुटता हो कोई
जायज़ होकर भी कितने नाजायज़ हैं
मेरे दुश्मन को है मालूम मेरी दुश्मनी की हद
कहीं जाना हो तो बच्चे मेरे घर छोड़ जाता है
हम इसलिए भी किसी और के नहीं होते
तुम्हारे साथ हमें दिल में कौन
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