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अमर राष्ट्र - माखनलाल चतुर्वेदी

KavishalaKavishala March 17, 2022
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छोड़ चले, ले तेरी कुटिया,

यह लुटिया-डोरी ले अपनी,

फिर वह पापड़ नहीं बेलने,

फिर वह माला पड़े न जपनी।

यह जाग्रति तेरी तू ले-ले,

मुझको मेरा दे-दे सपना,

तेरे शीतल सिंहासन से

सुखकर सौ युग ज्वाला तपना।

सूली का पथ ही सीखा हूँ,

सुविधा सदा बचाता आया,

मैं बलि-पथ का अंगारा हूँ,

जीवन-ज्वाल जलाता आया।

एक फूँक, मेरा अभिमत है,

फूँक चलूँ जिससे नभ जल थल,

मैं तो हूँ बलि-धारा-पंथी,

फेंक चुका कब का गंगाजल।

इस चढ़ाव पर चढ़ न सकोगे,

इस उतार से जा न सकोगे,

तो तुम मरने का घर ढूँढ़ो,

जीवन-पथ अपना न सकोगे।

श्वेत केश?—भाई होने को—

हैं ये श्वेत पुतलियाँ बाक़ी,

आया था इस घर एकाकी,

जाने दो मुझको एकाकी।

अपना कृपा-दान एकत्रित

कर लो, उससे जी बहला लें,

युग की होली माँग रही है,

लाओ उसमें आग लगा दें।

मत बोलो वे रस की बातें,

रस उसका जिसकी तरुणाई,

रस उसका जिसने सिर सौंपा,

आगी लगा भभूत रमायी।

जिस रस में कीड़े पड़ते हों,

उस रस पर विष हँस-हँस डालो;

आओ गले लगो, ऐ साजन!

रेतो तीर, कमान सँभालो।

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