Share0 Bookmarks 54691 Reads0 Likes
अलस्सुबह दांडू का क़ाफ़िला
रुख़ करता है शहर की ओर
और साँझ ढले वापस आता है
परिंदों के झुंड-सा
अजनबीयत लिए शुरू होता है दिन
और कटती है रात
अधूरे सनसनीख़ेज़ क़िस्सों के साथ
कंक्रीट से दबी पगडंडी की तरह
दबी रह जाती है
जीवन की पदचाप
बिल्कुल मौन!
वे जो शिकार खेला करते थे निश्चिंत
ज़हर-बुझे तीर से
या खेलते थे
रक्त-रंजित होली
अपने स्वत्व की आँच से
खेलते हैं शहर के
कंक्रीटीय जंगल में
जीवन बचाने का खेल
शिकारी शिकार बने फिर रहे हैं शहर में
अघोषित उलगुलान में
लड़ रहे हैं जंगल
लड़ रहे हैं ये
नक़्शे में घटते अपने घनत्व के ख़िलाफ़
जनगणना में घटती संख्या के ख़िलाफ़
गुफ़ाओं की तरह टूटती
अपनी ही जिजीविषा के ख़िलाफ़
इनमें भी वही आक्रोशित हैं
जो या तो अभावग्रस्त हैं
या तनावग्रस्त हैं
बाक़ी तटस्थ हैं
या लूट में शामिल ह
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments