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रामधारी सिंह दिनकर की किताब "द्वंदगीत" के कुछ पद

Kavishala ReviewsKavishala Reviews November 6, 2021
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ऐसा माना जाता है कि दिनकर का शुद्ध हिंदी के साथ-साथ संस्कृत के प्रति भी एकाग्र आकर्षण था।

द्वंदगीत के पदों को पढ़कर दिनकर जी का एक लोककवि का रूप सामने आता है। उन्होनें इनमें बिल्कुल सरल शब्दों में आम हिंदुस्तानी भाषा का प्रयोग किया है। इन पदों में एक आवाहन के साथ-साथ उन्होनें वीर एवम् कई जगहों पर श्रृंगार रस का भी प्रयोग किया है। 

निम्नलिखित कुछ रामधारी सिंह दिनकर जी की किताब "द्वंदगीत " से प्रारंभिक पद है :- 

(i)

चाहे जो भी फसल उगा ले, 

तू जलधार बहाता चल । 

जिसका भी घर चमक उठे, 

तू मुक्त प्रकाश लुटाता चल। 

रोक नहीं अपने अन्तर का, 

वेग किसी आशंका से, 

मन में उठें भाव जो, उनको 

गीत बना कर गाता चल

व्याख्या : इसमें कवि कहता है कि, तुम कोई भी फसल उगा लो पर जलधारा बहाते रहना। उस फसल को खिलते रहने देना। चाहे किसी का भी घर रोशन हो रहा हो, तुम आजाद हो कर अपना प्रकाश लुटाते रहना। अपने अंदर, अंतरवेग को किसी भी आशंका से मत रोक देना। मन में जो भी भाव उठे, उसे गीत बनाकर गाते रहना। 

(ii)

तुझे फिक्र क्या, खेती को

प्रस्तुत है कौन किसान नहीं ? 

जोत चुका है कौन खेत?

किसको मौसिम का ध्यान नहीं ? 

कौन समेटेगा, किसके

खेतों से जल बह जायेगा?

इस चिन्ता में पड़ा अगर

तो बाकी फिर ईमान नहीं ।

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