
यह 1980 के दशक की बात है। हिन्दी की प्रख्यात कवियत्री महादेवी वर्मा को प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार देने की घोषणा हुई थी। एक पत्रकार इस घोषणा के बाद जब महादेवी का साक्षात्कार लेने गया तो महादेवी ने अपने बीते हुए दिनों को याद करते हुए केवल इतना कहा था -‘‘यदि यह पुरस्कार मुझे कुछ समय पहले मिल जाता तो मैं महाप्राण निराला को आर्थिक अभावों में दम नहीं तोड़ने देती।’’ निराला ही क्यों, मुक्तिबोध औरप्रेमचंद जैसे मूर्धन्य रचनाकारों को भी अर्थाभावों में जीवनयापन करना पड़ा। दो दशक पहले तक भी हिन्दी भाषा में रचनाकर्म को उन वृत्तियों में नहीं गिना जाता था, जिनमें रत रहते हुए व्यक्ति अपने परिवार को सहज जीवनयापन के लिये वांछित आवश्यक सुविधाऐं भी दे सकता था। कई चुटकुले उस दौर में प्रचलित हुए जिनमें हिन्दी के कवि की विपन्नता रेखांकित की गई। मसलन, एक कवि अपनी कब्जी की शिकायत को लेकर डॉक्टर के पास जाता है तो डॉक्टर उसे बीस रूपये देकर कहता है कि पहले कुछ खाओगे तब ही कब्जी की शिकायत दूर होगी।’’ या फिर यह कि एक तीन बच्चों का पिता अपने पुराने दोस्त से मिलता है तो बताता है कि उसके दो बच्चों का कैरियर तो बहुत अच्छा है लेकिन तीसरे बच्चे की चिंता है -क्योंकि वो हिन्दी का कवि हो गया है।
भले ही इस तरह के चुटकुलों में हिन्दी के रचनाकार की आर्थिक स्थिति का उपहास किया गया हो, लेकिन यह उपहास समाज के यथार्थ को भी रेखांकित करता है। एक तो अभिजात्य कहे जाने वाले वर्ग में अंग्रेजी का वर्चस्व इतना गहरा पैठा हुआ था कि लोग सही हिन्दी में कही गई बात की अपेक्षा गलत अंग्रेजी में कही गई बात को अधिक महत्वपूर्ण मानते थे। हिन्दी के रचनाकार के पास अपने को अभिव्यक्त करने के लिए जितने मंच थे, उनमें प्रस्तुति के लिये या तो पारिश्रमिक था ही नहीं; और पारिश्रमिक था भी तो इतना कि वो जीवन रूपी ऊँट के मुँह में जीरा प्रतीत होता था। हिन्दी की पत्र- पत्रिकाओं में मिलने वाला पारिश्रमिक तो आज भी अपवाद स्वरूप ही रचनाकार को कुछ ‘कमाने’ का संतोष दे पाता है। छोड़िये पुरानी बातों को, आज भी हिन्दी के अखबारों में अंग्रेजी के जाने माने रचनाकारों के लेखों को अनुवाद द्वारा छापा जाना सम्मान का प्रतीक माना जाता है।
हाँ, कविसम्मेलनों में एक रात के पारिश्रमिक के बदले मिलने वाला पारिश्रमिक अपेक्षाकृत अब आकर्षक हो गया है। लेकिन इस पारिश्रमिक की राशि को आकर्षक बनाए जाने की कहानी भी कम रोचक नहीं है। गोपाल सिंह नेपाली, काका हाथरसी और डॉ. हरिवंशराय बच्चन को हिन्दी कविता की वाचिक परंपरा के आधुनिक दौर की नंीव रखने का श्रेय दिया जाता है। कुछ समय बाद गोपालदास नीरज, गोपाल प्रसाद व्यास और बालकवि बैरागी का नाम भी इस श्रृंखला में जुड़ गया। बच्चन जी की मधुशाला ने लोकप्रियता के नये आयाम स्थापित किये। देश भर में उन्हें सुनने की होड़ लग गई। एक यात्रा के बाद दूसरी यात्रा और दोनों यात्राओं के बीच रात में मंच पर प्रस्तुति देने का क्रम बहुत थका देने वाला होता है। यह थकान जब परेशान करने लगी तो बच्चन जी ने तय किया कि वो अपनी प्रस्तुतियों के लिये केवल मानदेय नहीं लेंगे बल्कि अपनी सुविधा के अनुरूप पारिश्रमिक लेंगे। आमतौर पर होता यह था कि रचनाकारों को मार्गव्यय के साथ कुछ अल्पराशि पत्रं-पुष्पं के तौर पर दे दी जाती थी। रात भर सामने जमे हुए श्रोता, उनकी वाह-वाह का तुमुलनाद और तालियाँ और सृजन के संसार को कुछ दे पाने का आत्मसंतोष रचनाकारों को सतत सक्रिय रखता था। लेकिन बच्चन जी ने इस आत्मसंतोष को आय की संभावनाओं से भी जोड़ने की पहल की। आज भी अधिकांश अकादमियों और सरकारी संस्थाओं द्वारा आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में रचनाकारों को मार्गव्यय के अतिरिक्त एक निश्चित राशि पारिश्रमिक के तौर पर उसी तरह दी जाती है जिस तरह से किसी सरकारी कर्मचारी को अपने कर्तव्य निष्पादन के लिये संपन्न की गई यात्रा के विरूद्ध यात्राभत्ता दिया जाता है। कविसम्मेलनों का मानदेय पारिश्रमिक में बदला तो शुरू में कुछ लोगों ने नाक- भौं सिंकोड़ी लेकिन लोेकप्रियता के सम्मुख या यों कहें कि आयोजन का आकर्षण बनाए रखने के आकर्षण के सम्मुख यह पारिश्रमिक का अतिरिक्त कहा जाने वाला भार भी आयोजकों को मंजूर हुआ और धीरे धीरे हिन्दी कविसम्मेलन प्रभावशाली प्रस्तुति देने वाले कवियों के लिए आय का एक अच्छा साधन बन गये।
हालांकि इसके कतिपय नुकसान भी कालांतर में हिन्दी कविता की वाचिक परंपरा के इस समद्ध और सामर्थ्यवान प्रारूप को हुए। चूँकि आयोजकों को जमने वाले याने देर तक श्रोताओं को अपनी प्रस्तुति से बाँधे रखने वाले कवियों की आवश्यकता थी, इसलिये कविता के नाम पर चुहल को बढ़ावा मिला। पहले यह होने लगा कि चुटकुलों को तुकबंदी की शक्ल में पेश किया जाने लगा। बाद में तुकबंदी की जरूरत को भी दरकिनार कर दिया गया। कई कवि तो केवल चुटकुलों के दम पर कविसम्मेलनों का लोकप्रिय नाम हो गये। कुछ कवियों ने वीर रस की कविता के नाम पर शिष्ट अभिव्यक्ति की मर्यादाओं तक को अनदेखा किया। कविसम्मेलनों के आयोजन के लिये दलाल और ठेकेदार खड़े हो गये।लोकप्रियता बढ़ने लगी तो कुछ कवियों ने सुराखोरी को अपनी शर्त बना लिया। फिर यह भी हुआ कि कुछ कवि आयोजकों पर दबाव डालने लगे कि यदि उन्हें बुलाना है तो इस या उस कवियत्री को भी बुलाना होगा। जो कविसम्मेलन सरस्वती के प्रांगण में सृजन के संस्कार जगाने का माध्यम समझे जाते थे, वो धीरे धीरे ऐसी आदतों का शिकार हो गये जो आदतें पंचसितारा पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये नैतिकता की सीमाऐं लांघकर भी दुनिया के कई देशों में पोषितऔर प्रोत्साहित की जाती हैं। अलग अलग लोगों ने अपने अपने गुट बना लिये। बहुत सी अपकारी प्रवृत्तियाँ कविसम्मेलनों की दुनिया में सक्रिय हुईं। लेकिन इन प्रवृत्तियों पर विस्तार से चर्चा करना फिलहाल यहाँ उचित नहीं। उनके बारे में फिर कभी बात करेंगे। फिलहाल सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि किसी भी क्षैत्र से नाम और धन की आमद जुड़ने पर जो जो अपकारी प्रवृत्तियाँ उससे जुड़ने को व्यग्र हो जाती हैं, वो प्रवृत्तियाँ कविसम्मेलन की परंपरा से भी आ जुड़ीं।
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