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विद्रोह के स्वरों को ताकत देने वाले कवि थे "काजी नजरुल इस्लाम"

Kavishala LabsKavishala Labs August 21, 2020
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बांग्ला भाषा के कवि काजी नजरुल इस्लाम धार्मिक कट्टरता के सख्त विरोधी थे. वे एक श्रेष्ठ कवि के साथ साथ, संगीतज्ञ और स्वतंत्रता सेनानी भी थे. उन्होंने बांग्ला साहित्य को नई पहचान दिलाई. हर बुराई का विरोध किया. हमेशा से सत्ता के विरोध में लिखते रहे. नजरुल इस्लाम ने असामनता व अत्याचार का खुलकर विरोध किया. उनकी रचनाओं में विरोध का स्वर होने के कारण वे "विद्रोही कवि के रूप में जाने जाते है.


काजी नज़रुल इस्लाम (24 मई 1899 - 29 अगस्त 1976) लोकप्रिय बांग्ला कवि, संगीतज्ञ, एवं दार्शनिक थे. वे बांग्ला भाषा के अन्यतम साहित्यकार, देशप्रेमी तथा बंगलादेश के राष्ट्रीय कवि हैं. पश्चिम बंगाल और बंगलादेश दोनो ही जगह उनकी कविता और गीतों को समान आदर प्राप्त है. उनकी कविताओं का विषय मनुष्य द्वारा मनुष्य पर अत्याचार, सामाजिक शोषण असामनता का विरोध रहा है. नजरुल का जन्म भारत के पश्चिम बंगाल प्रदेश के वर्धमान जिला में आसनसोल के पास चुरुलिया गाँव में में हुआ था. उनकी प्राथमिक शिक्षा धार्मिक (मजहबी) शिक्षा के रूप में हुई. किशोरावस्था में विभिन्न थिएटर दलों के साथ काम करते-करते उन्होने कविता, नाटक एवं साहित्य के सम्बन्ध में सम्यक ज्ञान प्राप्त किया.


उनदिनों देश में अंग्रेजी हुकूमत का अत्याचार चरम पर था. काजी नजरुल इस्लाम ने इस अत्याचार को देखते हुए एक अमर क्रांतिकारी गीत लिखा. उनकी कविता ने देश की आजादी के लिए संघर्ष कर रहे क्रांतिकारियों के मन में नया जोश भर दिया. विद्रोही कवि नजरुल देश की आजादी के लिए लिखते रहे. उनकी कविताएं क्रांतिकारियों को प्रेरणा दे रही थी. 1922 में उनका काव्य संग्रह ‘अग्निवीणा’ प्रकाशित हुआ. इस कविता संग्रह ने उन्हें क्रांतिकारियों का प्रेरणास्रोत बना दिया. इस संग्रह की सबसे प्रसिद्ध कविता थी ‘विद्रोही’. "विद्रोही" कविता ने अंग्रेजों के मन में खौफ भर दिया. और काजी नज़रुल इस्लाम अंग्रेजो को खटकने लगे. लेकिन इसी कविता ने उन्हें जनता के बीच "विद्रोही कवि" कवि के रूप में स्थापित किया . पढ़िए उनकी कविता "विद्रोही" . मूल भाषा बांग्ला से हिंदी में अनुवाद में कबीर चौधरी द्वारा अनुवादित- 


बोलो वीर

बोलो चिर उन्नत मेरा शीश

मेरा मस्तक निहार

झुका पड़ा है हिमद्र शिखर

बोलो वीर

बोलो महाविश्व महाआकाश चीर

सूर्य चंद्र से आगे

धरती पाताल स्वर्ग भेद

ईश्वर का सिंहासन छेद

उठा हूं मैं

मैं धरती का एकमात्र शाश्वत विस्मय

देखो मेरे नेत्रों में

दीप्त जय का दिव्य तिलक

ललाट पर चिर स्थिर

बोलो वीर

बोलो चिर उन्नत मेरा शीश


मैं दायित्वहीन क्रूर नृशंस

महाप्रलय का नटराज

मैं चक्रवात विध्वंस

मैं महाभय, मैं पृथ्वी का अभिताप

मैं निर्दयी, सबकुछ तोड़फोड़ मैं नहीं करता विलाप

मैं अनियम, उच्छृंखल

कुचल चलूं मैं नियम क़ानून श्रृंखल

नहीं मानता कोई प्रभुता

मैं अंधड़, मैं बारूदी विस्फोट

शीश बन कर उठा

मैं दुर्जटी शिव,

काल बैशाखी का परम अंधड़

विद्रोही मैं

मैं विश्वविधात्री का विद्रोही पुत्र

नंग धड़ंग अंधड़

बोलो वीर

बोलो चिर उन्नत मेरा शीश


मैं बवंडर, मैं तूफ़ान

मैं उजाड़ चलता

मैं नित्य पागल छंद

अपने ताल पर नाचता

मैं मुक्त जीवन आनंद

मैं चिर-चंचल उछल कूद

मैं नित्य उन्माद

करता मैं अपने मन की

नहीं कोई लज्जा

मैं शत्रु से करूं आलिंगन

चाहे मृत्यु से लडाऊं पंजा

मैं उन्मत्त, मैं झंझा

मैं महामारी, धरती की बेचैनी

शासन का खौफ़, संहार

मैं प्रचंड चिर-अधीर

बोलो वीर

बोलो चिर उन्नत मेरा शीश


मैं चिर दुरंत, दुर्मति, मैं दुर्गम

भर प्राणों का प्याला पीता,

भरपूर मद हरदम

मैं होम शिखा, मैं जमदग्नि

मैं यक्ष पुरोहित अग्नि

मैं लोकालय, मैं श्मशान

मैं अवसान, निशा अवसान

मैं इंद्राणी पुत्र, हाथों में चांद

मैं नीलकंठ, मंथन विष पीकर

मैं व्योमकेश गंगोत्री का पागल पीर

बोलो वीर

बोलो चिर उन्नत मेरा शीश


मैं संन्यासी, मैं सैनिक

मैं युवराज, बैरागी

मैं चंगेज़, मैं बागी

सलाम ठोकता केवल खुद को

मैं वज्र, मैं ब्रह्मा का हुंकार

मैं इसाफील की तुरही

मैं पिनाक पानी

डमरू, त्रिशूल, ओंकार

मैं धर्मराज का दंड,

मैं चक्र महाशंख

प्रणव नाद प्रचंड

मैं आगबबूला दुर्वासा का शिष्य

जलाकर रख दूंगा विश्व

मैं प्राणभरा उल्लास

मैं सृष्टि का शत्रु, मैं महा त्रास

मैं महा प्रलय का अग्रदूत

राहू का ग्रास

मैं कभी प्रशांत, कभी अशांत

बावला स्वेच्छाचारी

मैं सुरी के रक्त से सिंची

एक नई चिंगारी

मैं महासागर की गरज

मैं अपगामी, मैं अचरज

मैं बंधन मुक्त कन्या कुमारी

नयनों की चिंगारी


सोलह वर्ष का युवक मैं

प्रेमी अविचारी

मैं ह्रदय में अटका हुआ

प्रेम रोग की हूक

मैं हर्ष असीम अनंत

और मैं वंध्या का दुःख

मैं विधि का श्वास

मैं अभागे का दीर्घ श्वास

मैं वंचित व्यथित पथवासी

मैं निराश पथिकों का संताप

अपमानितों का परिताप

अस्वीकृत प्रेमी की उत्तेजना

मैं विधवा की जटिल वेदना

मैं अभिमानी, मैं चित चुंबन

मैं चिर कुमारी कन्या के

थरथर हाथों का प्रथम स्पर्श

मैं झुके नैनों का खेल

कसे आलिंगन का हर्ष

मैं यौवन चंचल नारी का प्रेम

चूड़ियों की खनखन


मैं सनातन शिशु, नित्य किशोर, मैं तनाव

मैं यौवन से सहमी बाला के आंचल का खिंचाव

मैं उत्तरवायु, अनिल शामक उदास पूर्वी हवा

मैं पथिक कवि की रागिनी, मैं गीत, मैं दवा

मैं आग में जलती निरंतर प्यास

मैं रूद्र, रौद्र, मैं घृणा अविश्वास

मैं रेगिस्तान झर-झर झरता एक झरना

मैं शामल, शांत, धुंधला एक सपना


मैं दिव्य आनंद में दौड़ रहा ये क्या उन्माद

जान लिया है मैंने खुद को

आज खुल गए हैं सब वाद

मैं उत्थान, मैं पतन

मैं अचेतन में भी चेतन

मैं विश्व द्वार पर वैजयंती

मानव विजय केतन

मैं जंगल में फैलता दावानल

मैं पाताल पतीत पागल

अग्नी का दूत, मैं कलरव, मैं कोलाहल

मैं धंसती धरती के ह्रदय में भूकंप

मैं वासुकी का फन

स्वर्गदूत जिब्राइल का जलता अंजन

मैं विष, मैं अमृत, मैं समुद्र मंथन


मैं देवशिशु मैं चंचल

मैं दांतों से नोच डालता

विश्व मां का अंचल

और बांसुरी बजाता

ज्वरग्रस्त संसार को मैं बड़ी

ममता से सुलाता

मैं शाम की बंसी

नदी से उछल छू लेता महा आकाश

मेरे भय से धूमिल स्वर्ग का निखिल प्रकाश

मैं बगावत का अखिल दूत

मैं उबकाई नरक का प्राचीन भूत

मैं अन्याय, मैं उल्का, मैं शनि

मैं धूमकेतु में जलता विषधर कालफनी

मैं छिन्नमस्ता, चंडी

मैं सर्वनाश का दस्ता

मैं नर्क की आग में बैठ बच्चे सा हंसता


मैं चिन्मय

मैं अजर, अमर, अक्षय

मैं मानव, दानव, देवताओं का भय

जगदीश्वर ईश्वर

मैं पुरुषोत्तम सत्य

मैं रौंदता फिरता स्वर्ग, नर्क

मैं अश्वत्थामा कृत्य

मैं नटराज का नृत्य

मैं परशुराम का कठोर प्रहार

निक्षत्रिय करूंगा विश्व

मैं लाऊंगा शांति शांत उदार

मैं बलराम का यज्ञ

यज्ञकुंड में होगा दाहक दृश्य

मैं महाविद्रोही अक्लांत

उस दिन होऊंगा शांत

जब उत्पीड़ितों का क्रंदन षोक

आकाश वायु में नहीं गूंजेगा

जब अत्याचारी का खड्ग

निरीह के रक्त से नहीं रंजेगा

मैं विद्रोही रणक्लांत

मैं उस दिन होऊंगा शांत

पर तब तक

मैं विद्रोही दृढ बन

भगवान के वक्ष को भी

लातों से देता रहूंगा दस्तक

तब तक

मैं विद्रोही वीर

पी कर जगत का विष

बन कर विजय ध्वजा

विश्व रणभूमि के बीचो-बीच

खड़ा रहूंगा अकेला

चिर उन्नत शीश

मैं विद्रोही वीर

बोलो वीर…


काजी नजरुल इस्लाम कृष्ण के भक्त भी थे. उन्होंने कृष्ण की भक्ति में कई कविताओं की रचना की जो बहुत लोकप्रिय हुई. कृष्ण भक्ति में कृष्ण को समर्पित जिन कविताओं की रचना नुरुल इस्लाम ने की, वैसी कविताएं किसी अन्य कवि ने नहीं लिखी हैं. प्रस्तुत हैं कृष्ण पर लिखी लोकप्रिय कविता-


अगर तुम राधा होते श्याम।

मेरी तरह बस आठों पहर तुम,

रटते श्याम का नाम।।

वन-फूल की माला निराली

वन जाति नागन काली

कृष्ण प्रेम की भीख मांगने

आते लाख जनम।

तुम, आते इस बृजधाम।।

चुपके चुपके तुमरे हिरदय में

बसता बंसीवाला;

और, धीरे धारे उसकी धुन से

बढ़ती मन की ज्वाला।

पनघट में नैन बिछाए तुम,

रहते आस लगाए

और, काले के संग प्रीत लगाकर

हो जाते बदनाम।।


काजी नजरुल इस्लाम ने लगभग 3000 गानों की रचना की और उनमे से अधिकांश गीतों को स्वर भी दिया. उनके गीतों को 'नजरुल संगीत' या "नजरुल गीति" नाम से जाना जाता है. 1945 में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने बांग्ला साहित्य में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए तत्कालीन सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित किया. स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म भूषण’ तथा बांग्लादेश सरकार ने उन्हें ‘महाकवि’ के रूप में

सम्मानित किया. 

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