
रौद्र रस की परिभाषा — किसी व्यक्ति के द्वारा क्रोध में किए गए अपमान आदि के उत्पन्न भाव की परिपक्व अवस्था को रौद्र रस कहते हैं। इसका स्थायी भाव क्रोध होता है जब किसी एक पक्ष या व्यक्ति द्वारा दुसरे पक्ष या दुसरे व्यक्ति का अपमान करने अथवा अपने गुरुजन आदि कि निन्दा से जो क्रोध उत्पन्न होता है उसे रौद्र रस कहते हैं इसमें क्रोध के कारण मुख लाल हो जाना, दाँत पिसना, शास्त्र चलाना, भौहे चढ़ाना आदि के भाव उत्पन्न होते हैं।
निम्न लिखित कुछ कविताएं रौद्र रस के उधारण है :-
(i) "अर्जुन को श्री कृष्ण का उपदेश"
श्री कृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे
लव शील अपना भूलकर करतल युगल मलने लगे
संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े
करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ खड़े। ।
व्याख्या : महाभारत युद्ध से पूर्व श्री कृष्ण, अर्जुन को उपदेश देते हैं। इस उपदेश में जीवन और कर्म के मर्म को समझाते हैं।
अर्जुन जब जीवन के वास्तविकता को समझ जाता है और शत्रुओं को दंड देना शास्त्र के अनुसार उचित पाता है , तब वह गर्जना करते हुए उठ खड़ा होता है और अपने दोनों हाथों को मिलते हुए अपने रण पराक्रम को दिखाने के लिए तत्पर होता है। इसके लिए वह अपने सगे-संबंधियों को भी दंड देने के लिए तत्पर है। यह घोषणा करते हुए वह क्रोध में उठता है।
(ii) "सीता का स्वयंवर"
सुनत लखन के बचन कठोर।
परसु सुधरि धरेउ कर घोरा
अब जनि देर दोसु मोहि लोगू।
कटुबादी बालक बध जोगू। ।
रे नृपबालक कालबस बोलत तोहि न संभार
धनुही सम त्रिपुरारी द्युत बिदित सकल संसार। ।
व्याख्या : उपरोक्त प्रसंग सीता स्वयंवर का है , जिसमें लक्ष्मण के द्वारा मुनि परशुराम को भड़काने क्रोध दिलाने का प्रसंग है। लक्ष्मण परशुराम के क्रोध को इतना बढ़ा देते हैं कि वह बालक लक्ष्मण का वध करने को आतुर होते हैं। उनकी भुजाएं फड़फड़ाने लगती है। इसे देखकर वहां दरबार में उपस्थित सभी राजा-राजकुमार थर-थर कांपने लगते हैं। क्योंकि परशुराम के क्रोध को सभी भली-भांति जानते हैं।इस क्रोध में वह लक्ष्मण को कहते हैं कि – हे राजकुमार तू काल के वशीभूत होकर अनाप-शनाप बोल रहा है। जिसे तू छोटा धनुष मान रहा है , वह शिवनाथ, शिव शंकर का है और तुम मेरे क्रोध से आज नहीं बचने वाला नहीं।' ऐसा कहते हुए परशुराम के क्रोध की अभिव्यंजना यहां हुई है।
(iii) "हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।"
हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।
'उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।
'शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
'भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहाँ तू है।
व्याख्या : दुर्योधन से क्रोधित होकर भगवान कृष्ण ने अपना भीष्म हुंकार किया। अपना स्वरूप, विस्तार किया। उनके स्वरूप को देखकर सब कुछ डोले लगा और भगवान क्रोध में आकर बोले की, है दुर्योधन! जंजीर को बड़ा और मुझे बांध! गगन में, पवन में, संसार में, संहार में, अमृत में, उदयाचल में, भूमंडल नक्षत्रों में, सब जगह मैं ही मैं हूं। मेरे मुंह के अंदर है यह सब। चराचर जीव शत -शत नश्वर मनुष्य, हजारों सूर्य, हजारों चंद्रमा, हजारों नदियां, हजारों सिंधु, हजारों विष्णु-ब्रह्मा-महेश, सब मुझ में है। पूरा ब्रह्मांड मुझ में है। आ दुर्योधन जंजीर बढ़ा कर मुझे बांध। भूलोक में, अतल में, पाताल में, काल में, जगत में, महाभारत के रण में, उसकी भूमि पर देख और पहचान, कि मैं कहां हूं और तू कहां है।
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