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रौद्र रस : क्रोध अभिव्यक्ति के भाव को व्यक्त करने वाला रस

Kavishala LabsKavishala Labs October 26, 2021
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रौद्र रस की परिभाषा — किसी व्यक्ति के द्वारा क्रोध में किए गए अपमान आदि के उत्पन्न भाव की परिपक्व अवस्था को रौद्र रस कहते हैं। इसका स्थायी भाव क्रोध होता है जब किसी एक पक्ष या व्यक्ति द्वारा दुसरे पक्ष या दुसरे व्यक्ति का अपमान करने अथवा अपने गुरुजन आदि कि निन्दा से जो क्रोध उत्पन्न होता है उसे रौद्र रस कहते हैं इसमें क्रोध के कारण मुख लाल हो जाना, दाँत पिसना, शास्त्र चलाना, भौहे चढ़ाना आदि के भाव उत्पन्न होते हैं।

निम्न लिखित कुछ कविताएं रौद्र रस के उधारण है :-

(i) "अर्जुन को श्री कृष्ण का उपदेश"

श्री कृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे 

लव शील अपना भूलकर करतल युगल मलने लगे 

संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े 

करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ खड़े। ।

व्याख्या : महाभारत युद्ध से पूर्व श्री कृष्ण, अर्जुन को उपदेश देते हैं। इस उपदेश में जीवन और कर्म के मर्म को समझाते हैं।

अर्जुन जब जीवन के वास्तविकता को समझ जाता है और शत्रुओं को दंड देना शास्त्र के अनुसार उचित पाता है , तब वह गर्जना करते हुए उठ खड़ा होता है और अपने दोनों हाथों को मिलते हुए अपने रण पराक्रम को दिखाने के लिए तत्पर होता है। इसके लिए वह अपने सगे-संबंधियों को भी दंड देने के लिए तत्पर है। यह घोषणा करते हुए वह क्रोध में उठता है।

(ii) "सीता का स्वयंवर"

सुनत लखन के बचन कठोर। 

परसु सुधरि धरेउ कर घोरा

अब जनि देर दोसु मोहि लोगू। 

कटुबादी बालक बध जोगू। ।

रे नृपबालक कालबस बोलत तोहि न संभार

धनुही सम त्रिपुरारी द्युत बिदित सकल संसार। ।

व्याख्या : उपरोक्त प्रसंग सीता स्वयंवर का है , जिसमें लक्ष्मण के द्वारा मुनि परशुराम को भड़काने क्रोध दिलाने का प्रसंग है। लक्ष्मण परशुराम के क्रोध को इतना बढ़ा देते हैं कि वह बालक लक्ष्मण का वध करने को आतुर होते हैं। उनकी भुजाएं फड़फड़ाने लगती है। इसे देखकर वहां दरबार में उपस्थित सभी राजा-राजकुमार थर-थर कांपने लगते हैं। क्योंकि परशुराम के क्रोध को सभी भली-भांति जानते हैं।इस क्रोध में वह लक्ष्मण को कहते हैं कि – हे राजकुमार तू काल के वशीभूत होकर अनाप-शनाप बोल रहा है। जिसे तू छोटा धनुष मान रहा है , वह शिवनाथ, शिव शंकर का है और तुम मेरे क्रोध से आज नहीं बचने वाला नहीं।' ऐसा कहते हुए परशुराम के क्रोध की अभिव्यंजना यहां हुई है।

(iii) "हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।"

हरि ने भीषण हुंकार किया,

अपना स्वरूप-विस्तार किया,

डगमग-डगमग दिग्गज डोले,

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