मैंने तय किया- परसाई, डरो किसी से मत डरे कि मरे, सीने को ऊपर कड़ा कर लो, भीतर तुम जो भी हो. ज़िम्मेदारी को गैर ज़िम्मेदारी के साथ निभाओ
-हरिशंकर परसाई
व्यंग शब्द सुनते ही सबसे पहले जिसका नाम स्मरण होता है वो हैं हरिशंकर परसाई का जो स्वयं कहा करते थे कि व्यंग्य साहित्य की एक ऐसी विधि है जो जीवन की आलोचना करता है और मिथ्याचारों और पाखंडों का पर्दाफाश करता है। एक व्यंगकार ,व्यक्ति-जीवन की विडम्बनाओं का एक ऐसा रेखाचित्र खींचता है जिसे पढ़ने वाला पाठक स्वयं ही सवाल उठाने को विवश हो जाता है। आज इस लेख में हम बात करेंगे व्यंग्य सम्राट हरिशंकर प्रसाद जी की जो समाज की रग रग से वाकिफ वयंकार थे। अपनी रचनाओं से उन्होंने सामाज में पसरी विसंगतिओं पाखंडों और मिथ्याचारों पर खुल कर प्रहार किया। सही मायनों में व्यंग्य की इस विधा की नीव रखने के साथ साथ सुढृढ़ रूप से खड़ा करने में परसाई जी ने मुख्य भूमिका निभाई है।जातीयता ,धार्मिक रूढ़िवादिता ,धार्मिक कट्टरता के विरूद्ध उनका एक अपना अलग विरोधी तेवर नज़र पड़ता था जिसका श्रेय वे अपनी बुआ को दिया करते थे आपको बता दें बचपन में ही परसाई जी की माँ का निधन हो गया था जिसके बाद उनकी बुआ उनके बहुत निकट थी। उनकी बुआ का प्रभाव उनके जीवन में बहुत पड़ा । उनसे ही उन्होंने सीखा कि जातीयता और धर्म बेकार के ढकोसले हैं। स्वयं उनकी बुआ ने पचास साल की अवस्था में तमाम विरोधों के बावजूद एक अनाथ मुस्लिम लड़के को अपने यहां शरण दे रखी थी। वो कहती थी संकट कोई भी हो घबराना नहीं ,सब हो जाएगा। इसी मूल मंत्र को साथ रख संघर्षो में भी परसाई जी ने स्वयं को हमेशा मजबूत रखा
मैंने तय किया- परसाई, डरो किसी से मत । डरे कि मरे।सीने को ऊपर कड़ा कर लो, भीतर तुम जो भी हो । ज़िम्मेदारी को गैर ज़िम्मेदारी के साथ निभाओ ।
परसाई जी ने स्वयं अविवाहित रहते हुए अपने भाई-बहनो की जिम्मेदारी को पूर्ण किया। शायद कार्य के प्रति उनकी निष्ठां ही थी जो उन्हें इस विषम जिंदगी को झेल जाने की शक्ति देती थी।
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