कहानी का आरंभ नरेश और करुणा के मध्य होली के बारे में हो रही बातचीत से होता है, जिसमें नरेश करुणा को होली के त्यौहार पर होली खेलने को कहता है। किंतु दुःखी जीवन जी रही करुणा के लिए होली जैसा पर्व भी महत्व नहीं रखता है। करुणा गरीबी में भी स्वाभिमान के साथ जीने वाली स्त्री है। पति जगतप्रसाद दो दिन के बाद जुए में जीते हुए रुपयों के साथ अपने घर आते हैं, किंतु दरिद्रता की हालत में भी करुणा उन रुपयों को नहीं छूती है। उन रुपयों के प्रति करुणा की विरक्ति को देखकर जगत प्रसाद रुपयों को उठाकर घर से निकल जाता है। पत्नी के रोकने पर वह उसे लातों से दरकिनार करते हुए चला जाता है। जगत प्रसाद गानेवाली नर्तकी पर आसक्त होकर उसपर अपना सारा धन लुटा देता है। घर पर पत्नी पति द्वारा ठेले जाने के कारण लहूलुहान रोती रहती है। करुणा के साथ रंग की पिचकारी सहित होली खेलने आया नरेश दरवाजा खोलने को कहता है किंतु दरवाजा खुलने पर वह उसकी अवस्था पर पूछ बैठता है कि-
"भाभी, यह क्या?"
"यही तो मेरी होली है, भैया।"
इसी पंक्ति के साथ कहानी का अंत होता है।
होली (कहानी) / सुभद्रा कुमारी चौहान
(1)
"कल होली है।"
"होगी।"
"क्या तुम न मनाओगी?"
"नहीं।"
''नहीं?''
''न ।''
'''क्यों? ''
''क्या बताऊं क्यों?''
''आखिर कुछ सुनूं भी तो ।''
''सुनकर क्या करोगे? ''
''जो करते बनेगा ।''
''तुमसे कुछ भी न बनेगा ।''
''तो भी ।''
''तो भी क्या कहूँ?
"क्या तुम नहीं जानते होली या कोई भी त्योहार वही मनाता है जो सुखी है । जिसके जीवन में किसी प्रकार का सुख ही नहीं, वह त्योहार भला किस बिरते पर मनावे? ''
''तो क्या तुमसे होली खेलने न आऊं? ''
''क्या करोगे आकर?''
सकरुण दृष्टि से करुणा की ओर देखते हुए नरेश साइकिल उठाकर घर चल दिया । करुणा अपने घर के काम-काज में लग गई ।
(2)
नरेश के जाने के आध घंटे बाद ही करुणा के पति जगत प्रसाद ने घर में प्रवेश किया । उनकी आँखें लाल थीं । मुंह से तेज शराब की बू आ रही थी । जलती हुई सिग
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