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ज्ञानपीठ पुरस्कृत पद्मभूषण आचार्य सत्यव्रत शास्त्री से शास्त्री कोसलेन्द्रदास की बातचीत

Kavishala InterviewsKavishala Interviews November 15, 2021
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संस्कृत साहित्य में सूनापन पसरा हुआ है। सत्यव्रत शास्त्री नहीं रहे। उनका परिचय उनका नाम है। उनका काम है। बदलते साहित्यिक मिजाज के बीच वे संस्कृत के सारथी थे। 2012 में राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर के गेस्ट हाउस में उनसे एक लंबी बातचीत हुई थी, जो 'मधुमती' में छपी थी। आज जब वे नहीं हैं तो उनसे हुई बातचीत का संपूर्ण हिस्सा यहां है।


(ज्ञानपीठ पुरस्कृत पद्मभूषण आचार्य सत्यव्रत शास्त्री से शास्त्री कोसलेन्द्रदास की बातचीत)

[संस्कृत को एक शांत संघर्ष की आवश्यकता है : आचार्य सत्यव्रत शास्त्री]


1. भारत में संस्कृत को सर्वोच्च स्थान मिलना चाहिए था, वह अभी तक क्यों नहीं मिला?

ऐसा बिलकुल नहीं है। हमारे राष्ट्र के भाषायी स्वरूप में संस्कृत निर्विवाद रूप से सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित है। इसके दो कारण हैं - प्रथम यह कि संस्कृत विश्व की प्राचीनतम महनीय भाषा है। दूसरा है कि केवल संस्कृत का साहित्य ही विश्व में सर्वाधिक पुरातन है। भारत की सारी प्रादेशिक भाषाओं का प्रेरणास्रोत संस्कृत साहित्य है। हमारे देश की किसी भी प्रादेशिक भाषा को ले लीजिए, उस भाषा के सारे प्रारंभिक लेखक संस्कृत के भी विद्वान् थे। यही कारण है कि भारत की किसी भी प्रादेशिक भाषा में लिखे साहित्य में संस्कृत का स्वर और पुट भरपूर मात्रा में है। उदाहरण के लिए हिंदी को ही लीजिए। हिंदी में जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, मैथिलीशरण गुप्त, रामधारीसिंह ‘दिनकर’ आदि कवियों की रचनाएं संस्कृतनिष्ठ हैं। ‘कामायनी’ को बिना अच्छे-खासे संस्कृत ज्ञान के समझना संभव नहीं है। मैंने अनेक संस्कृत न जानने वाले हिंदी के विद्वानों को ‘कामायनी’ पढ़ाई है क्योंकि संस्कृत में निबद्ध जटिल भारतीय दर्शन को जाने बगैर कामायनी समझ आ ही नहीं सकती। प्रादेशिक भाषाओं ने अपने कथानक-काव्य-उपन्यासों की विषय-वस्तु संस्कृत वाङ्मय से ही ली है। रामायण, महाभारत तथा अन्य पौराणिक आख्यान सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य के मूल स्रोत रहे हैं, यह बात निर्विवाद रूप से सच्ची है।


2. क्या अब तक हिंदी के राष्ट्रभाषा नहीं बन पाने का नुकसान संस्कृत ने भी उठाया है?

नहीं, नहीं। इसका कोई प्रभाव संस्कृत पर नहीं पड़ा। मेरा तो मानना है कि संस्कृत को ही हमारी राष्ट्रभाषा बनाना चाहिए था। आज हिंदी का जो भी विरोध है, उसके पीछे एक तर्क है। लगता है कि उस तर्क को नकारा भी नहीं जा सकता। जहाँ तक हिंदी का संबंध है तो हिंदी किसी एक प्रदेश विशेष की भाषा नहीं है। देश का एक बहुत बड़ा भाग हिंदीभाषी है। हिंदी की बोलियाँ जरूर अनेक हैं पर हिंदी की खड़ी बोली का जो स्वरूप है, वह लगभग सर्वमान्य है। हिमाचल प्रदेश से लेकर बिहार होते हुए राजस्थान-मध्यप्रदेश तक का क्षेत्र हिंदी क्षेत्र है। संविधान ने इसी व्यापकता के कारण हिंदी को हमारी राष्ट्रभाषा बनाया था। इससे दक्षिण भारत, पूर्वी भारत या पश्चिमी भारत के लोगों को लग रहा है कि हिंदी भाषी क्षेत्र के लोगों को इससे स्वाभाविक लाभ मिल रहा है। हिंदी भाषी क्षेत्र के लोगों की मातृभाषा हिंदी है और राष्ट्रभाषा भी हिंदी ही है। जबकि अन्य लोगों की मातृभाषा हिंदी नहीं है, अत: उन्हें हिंदी सीखनी पड़ती है। इसी विषय पर लोगों में टकराव आ रहा है। उस टकराव को तभी मिटाया जा सकता था जब संस्कृत राष्ट्रभाषा होती क्योंकि उस समय संस्कृत किसी की भी मातृभाषा नहीं थी। इस कारण संस्कृत सबको सीखनी पड़ती और यह विवाद होता ही नहीं, ठीक उसी तरह जिस तरह से हिब्रू भाषा के साथ हुआ। डॉ. भीमराव आंबेडक़र जैसे दूसरे कई विद्वानों ने संस्कृत को यह स्थान दिलवाने की भरसक कोशिश की थी। आंबेडक़र का मानना था कि देश को भाषाई एकसूत्र में पिरोने का काम संस्कृत ही कर सकती है। लेकिन जिस समय यह निर्णय किया जाना चाहिए था, उस समय यह नहीं लिया गया। अब यदि हम संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने की बात करते हैं तो इसमें पर्याप्त कठिनाइयाँ आने की संभावना है। यहाँ तक की हिंदी क्षेत्र में ही इसका विरोध होने लगेगा। हाँ, हिंदीतर क्षेत्र के प्रांतों में जहाँ हिंदी का व्यवहार नहीं होता, उन लोगों को संस्कृत सीखने में कदाचित् आसानी हो सकती है, क्योंकि वहाँ की भाषा में संस्कृत की प्रचुर शब्दावली है। वैसे प्रचुर शब्दावली तो हिंदी में भी संस्कृत की ही है।भारत में चार भाषा परिवार है, जिनका मुख्य रूप से व्यवहार हमारे यहाँ होता है। पहला आर्य भाषा परिवार (इन्डो आर्यन फैमिली), दूसरा द्रविड भाषा परिवार, तीसरा हिमालयी (तिब्बतो) भाषा परिवार और चौथा आदिवासी भीली, कोली, मुंडारी इत्यादि भाषा परिवार (ऑस्ट्रिक)। इन चार भाषा परिवारों में हिंदी प्रथम भाषा परिवार, आर्य भाषा परिवार की है। इस भाषा परिवार में गुजराती, मराठी, बांग्ला, पंजाबी और उडिय़ा आदि भाषाएं है। इन सभी भाषा परिवारों की भाषाओं में अंतर इतना है कि जहां आर्य भाषा परिवार की भाषाओं में विशेषकर हिंदी में तद्भव शब्दों का अधिक प्रयोग है वहीं द्रविड परिवार की भाषा में तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिक है। यह प्रयोग संस्कृत को इन भाषाओं के बहुत निकट ले जाता हैं। जैसे हिंदी में हम ‘नींद’ कहते हैं पर द्रविड भाषाओं में ‘निद्रा’ कहा जाता है। ‘निद्रा’ संस्कृत का शुद्ध शब्द है, जो भारत की अनेक प्रादेशिक भाषाओं में यथावत् प्रयुक्त होता है। यदि द्रविड भाषाओं में संस्कृत शब्दों के प्रतिशत की बात करें तो मळयालम में लगभग 70 प्रतिशत शब्द संस्कृत के हैं। तेलुगु और कन्नड़ में भी 60-70 प्रतिशत शब्द संस्कृत के हैं। तमिळ में भी पर्याप्त शब्द संस्कृत के हैं। इस तरह से दक्षिण की लगभग सभी भाषाओं में प्रचुर संख्या में संस्कृत के शब्द हैं। पूर्वी भारत की बात करें तो वहाँ की उडिय़ा, असमिया और बांग्ला में संस्कृत शब्दों की भरमार ही है। हमारे राष्ट्रगीत में मात्र क्रियापद में भेद है, शेष सारे संस्कृत के शब्द हैं। ‘वन्दे मातरम्’ में ही देखिए-‘सुजलां-सुफलां-मलयजशीतलाम्, सस्यश्यामलां मातरम्’ आदि सारे संस्कृत शब्द हैं जबकि एक तरह से इसे बांग्ला में माना जाता है। संस्कृत तो एक ऐसा सूत्र है जो सारे देश को एक भाषायी धरातल पर एकसाथ लाने में समर्थ है। अब संस्कृत को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रस्तुत करने में यदि कठिनाइयाँ भी हैं तो इतना तो हम कर ही सकते हैं कि संस्कृत भाषा को खूब प्रोत्साहित किया जाए। इस भाषा का प्रचलन बहुत अधिक हो। इससे यह होगा कि पूरे देश में तत्तत्-भाषा-भाषी लोग अपने-आपको एक-दूसरे के निकट पायेंगे। पूरे देश में एक निकटता आयेगी और उस निकटता को लाने में एकमात्र संस्कृत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।


3. संस्कृत को जब सांप्रदायिकता से जोडक़र देखा जाता है तो आपको कैसा लगता है?

नहीं, यह बात सर्वथा निराधार व निर्मूल है। मैं इसका पूरी तरह से खंडन करता हूँ। संस्कृत को किसी भी धर्म या संप्रदाय अथवा जाति विशेष से संबद्ध करना पूरी तरह से अनुचित है। संस्कृत के विकास में मुसलमानों व ईसाइयों का बहुत बड़ा योगदान है। 2005 में 7 खण्ड़ों में मेरा 2000 पृष्ठों का एक ग्रंथ आया था-‘डिस्कवरी ऑफ संस्कृत ट्रेजर्स’। थाईलैंड की राजकुमारी महाचक्री सिरिन्थौर्न ने इसका विमोचन किया था। उस ग्रंथ में एक सुदीर्घ विवेचन इसी विषय पर हुआ है-‘कंट्रीब्यूशन ऑफ मुस्लिम्स टू संस्कृत’। इसी तरह से ‘क्रिश्चियन लिट्रेचर इन संस्कृत’ पर मैंने काम किया है। ईसाइयों ने तो श्रीमद्भगवद्गीता की तर्ज पर ‘ख्रिस्तु गीता’ का प्रणयन किया है। केरल के पी.सी. देवस्सिआ ने 36 सर्गों में एक सुंदर व ललित महाकाव्य लिखा है ‘ख्रिस्तुभागवतम्’, जिस पर उन्हें 1980 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इसी तरह ‘यीशुचरितम्’, ‘यीशुमाहात्म्यम्’ और ‘यीशुसौरभम्’ जैसे अनेक ग्रंथ लिखे गए हैं। यहाँ तक की विष्णुसहस्रनामस्तोत्र की तरह ‘ख्रिस्तुसहस्रनामस्तोत्र’ भी लिखा गया। इसी तरह अनेक मुस्लिम संस्कृत विद्वान् हुए हैं। तिरुपति के राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ में एक मुस्लिम संस्कृत प्राध्यापक ने ‘माधवीयधातुवृत्ति:’ पर काम किया है। आज ही नहीं प्राचीन काल से ही मुस्लिम विद्वानों ने संस्कृत पर लेखनी चलाई है। अब्दुल रहीम खानेखाना ने ‘खेटकौतुकम्’ व ‘रहीमकाव्यम्’ लिखा है, जो बड़ा सुप्रसिद्ध काव्य है। उस दौर में अनेक ऐसे भी ग्रंथ लिखे गये थे, जिनमें मणिप्रवाल शैली में आधे श्लोक को उर्दू, ब्रज, अवधी या भोजपुरी में और आधे को संस्कृत में लिखा गया है। एक प्रसिद्ध श्लोक है-

एकस्मिन् दिवसावसानसमये मैं था गया बाग में

काचित् तत्र कुरङ्गबालनयना गुल तोड़ती थी खड़ी।

तां दृष्ट्वा नवयौवनां शशिमुखीं मैं मोह में जा पड़ा

तत्सीदामि सर्दव मोहजलधौ हा दिल गुजारे शुकर।।


ऐसी कई रचनाएं उस दौर में लिखी गई। एक जगन्नाथ त्रिशूली नाम के पंडित थे बादशाह शांहजहाँ और बेगम मुमताज के पास। त्रिशूली पंडित जो भी रचना करते थे, अब्दुल रहीम खानेखाना को सुनाया करते थे। एक बार उन्होंने एक पद्य लिखा और उसे सुनाने रहीम के पास पहुंचे। तब रहीम वकील (प्रधान मंत्री)जैसे उच्च पद पर थे। वह पद्य था-

प्राप्य चलानधिकारान् शत्रुषु मित्रेषु बन्धुवर्गेषु।

नापकृतं नोपकृतं नोपकृतं किं कृतं तेन?।।


अर्थात् अधिकार के पद बड़े चंचल होते हैं। (आज हैं, कल शायद न रहें।) इन्हें प्राप्त कर यदि किसी ने शत्रुओं का अपकार (हानि) नहीं किया और मित्रों तथा बंधुओं का उपकार नहीं किया तो उसने किया क्या? (इस पद्य में यथासंख्य अलंकार है।)

अब्दुल रहीम खानेखाना ने इस पद्य को बड़े गौर से सुना और त्रिशूली पंडित से कहा कि आपने

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