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आधुनिक शायरी का अर्थ समझाने वाले शमीम हनफ़ी

Kavishala DailyKavishala Daily November 17, 2021
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मैं ने चाहा था कि लफ़्ज़ों में छुपा लूँ ख़ुद को 

ख़ामुशी लफ़्ज़ की दीवार गिरा देती है

-शमीम हनफ़ी 


ग़ालिब अकादमी ,अंजुम तारकी उर्दू  और ग़ालिब इंस्टिट्यूट जैसी कई भाषाई और सामाजिक संगठनों के साथ काम करने वाले भारतीय उर्दू आलोचक ,नाटककार और उर्दू साहित्य में आधुनिकतावादी आंदोलन के प्रस्तावक शमीम हनफ़ी का जन्म आज ही के दिन १७ नवंबर १९३८ को ब्रिटिश  भारत के सुल्तानपुर में हुआ था। उन्होंने अपने जीवन काल में कई नाटक लिखे जो लोकप्रिय भी रहे। आधुनिकता पर उनकी पुस्तकों में द फिलॉसॉफिकल फॉउंडेशन ऑफ मोर्डरमनिज्म और न्यू पोएटिक ट्रेडिशन शामिल हैं। उर्दू साहित्य में दिए योगदान के लिए उन्हें ज्ञानगरिमा मानद अलंकरण पुरस्कार और गालिब पुरूस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। नाटक लिखने के साथ-साथ उन्होंने ४ किताबों का अनुवाद भी किया है। इसके अलावा उनका बाल साहित्य में भी योगदान रहा है उनका लिखा आधुनिकता को दर्शाता है वास्तव में परंपरागत और आधुनिक शायरी के बिच का अंतर प्रदर्शित करता है। उन्होंने केवल शेर-शायरी करने का कार्य ही नहीं किया बल्कि शायरों के सन्दर्भ में भी कई बाते लिखी। उनकी प्रकाशित किताब 'हमसफ़रों के दरमियां' में उन्होंने शायरों के बारे में कई जानकारियां लिखी हैं साथ ही आधुनिक शायरी और परंपरागत शायरी का अर्थ समझाया है। शमीम हनफ़ी आधुनिकता को अपनी भाषा में परिभाषित करते हुए कहते थे :

पारंपरिक प्रगतिवाद, आधुनिकतावाद और उत्तर आधुनिकतावाद में मेरा विश्वास बहुत कमजोर है। मैं समझता हूं कि हमारी अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परंपरा के संदर्भ में ही हमारे अपने प्रगतिवाद, आधुनिकतावाद और उत्तर-आधुनिकतावाद की रूपरेखा तैयार की जानी चाहिए। जिस तरह हमारा सौंदर्यशास्त्र अलग है, उसी तरह हमारी प्रोग्रेसिविज्म या ज़दीदियत या आधुनिकता भी अलग है। 


बंद कर ले खिड़कियाँ यूँ रात को बाहर न देख 

डूबती आँखों से अपने शहर का मंज़र न देख

-शमीम हनफ़ी


शमीम हनफ़ी का मानना था कि आधुनिकतावाद से सम्बंधित विचारधारा किसी प्रत्यक्ष और सुसंगठित वैचारिक आंदोल पर आधारित नहीं है। यह अपने - अपने नज़रिए पर निर्भर करता है। वह इक़बाल को उर्दू की नयी नज़्म का आखरी शायर मानते थे और कहते थे कि इक़बाल की शायरी सिर्फ हमारे दिमाग से कायम नहीं करती बल्कि हवस पर भी वारिद होती लेखक होने के साथ उन्होंने अध्यापन कार्य भी किया जहाँ उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया पढ़ाया।


 शाम ने बर्फ़ पहन रक्खी थी रौशनियाँ भी ठंडी थीं 

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