
संत कबीर दास रहस्यवादी कवि और संत थे। कबीर दास जी ने ही निर्गुण भक्ति काव्यधारा की शुरुआत की। निर्गुण भक्ति में ईश्वर का कोई निश्चित स्वरुप नहीं माना गया है। बल्कि कवि समस्त संसार और स्वयं को भी ईश्वर के रूप में मानता है। कबीर दास जी ने अपने दोहों और रचनाओं में ईश्वर को प्रेमी और खुद को प्रेमिका माना और अपने दोहों के माध्यम से जीवन और संसार का सार समझाया है। कबीर के बीजक, कबीर ग्रंथावली, कबीर रचनावली, साखी ग्रंथ, अनुराग सागर की रचना की जो कि संसार भर में काफी प्रसिद्ध है।
प्रस्तुत है संत कबीर दास जी के कुछ सुप्रसिद्ध दोहे :-
(i)
दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय
जो सुख में सुमिरन करे, दुख काहे को होय
अर्थ : हम सभी परेशानियों में फंसने के बाद ही ईश्वर को याद करते हैं। सुख में कोई याद नहीं करता। जो यदि सुख में याद किया जाएगा तो फिर परेशानी क्यों आएगी।
(ii)
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय
जो मन खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोय
अर्थ : जब मैं पूरी दुनिया में खराब और बुरे लोगों को देखने निकला तो मुझे कोई बुरा नहीं मिला। और जो मैंने खुद के भीतर खोजने की कोशिश की तो मुझसे बुरा कोई नहीं मिला।
(iii)
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर
अर्थ : इस दोहे के माध्यम से कबीर कहना चाहते हैं कि सिर्फ बड़ा होने से कुछ नहीं होता। बड़ा होने के लिए विनम्रता जरूरी गुण है। जिस प्रकार खजूर का पेड़ इतना ऊंचा होने के बावजूद न पंथी को छाया दे सकता है और न ही उसके फल ही आसानी से तोड़े जा सकते हैं।
(iv)
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब
पल में परलय होएगी, बहुरी करोगे कब
अर्थ : कल का काम आज ही खत्म करें और आज का काम अभी ही खत्म करें। ऐसा न हो कि प्रलय आ जाए और सब-कुछ खत्म हो जाए और तुम कुछ न कर पाओ।
(v)
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोए
अपना तन शीतल करे, औरन को सुख होए
अर्थ : हमेशा ऐसी बोली और भाषा बोलिए कि उससे आपका अहम न बोले। आप खुद भी सुकून से रहें और दूसरे भी सुखी रहें।
(vi)
धीरे-धीरे रे मन, धीरे सब-कुछ होए
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होए
अर्थ : दुनिया में सारी चीजें अपनी रफ्तार से घटती हैं, हड़बड़ाहट से कुछ नहीं होता। माली पूरे साल पौधे को सींचता है और समय आने पर ही फल फलते हैं।
(vii)
साईं इतनी दीजिए, जा में कुटुंब समाए
मैं भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाए
अर्थ : यहां कबीर ईश्वर से सिर्फ उतना ही मांगते हैं जिसमें पूरा परिवार का खर्च चल जाए। न कम और न ज्यादा। कि वे भी भूखे न रहें और दरवाजे पर आया कोई साधू-संत भी भूखा न लौटे।
(viii)
पोथि पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोए
ढाई आखर प्रेम के, पढ़ा सो पंडित होए
अर्थ : कबीर कहते हैं कि किताबें पढ़ कर दुनिया में कोई भी ज्ञानी नहीं बना है। बल्कि जो प्रेम को जान गया है वही दुनिया का सबसे बड़ा ज्ञानी है।
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