
बनारस की भूमि तो हमेशा से साहित्यकारों की भूमि रही है, कबीर, रहीमदास, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, मुंशी प्रेमचंद आदि जैसे साहित्यकारों को बनारस की भूमि ने है तो गड़ा है उसकी शंकर की नगरी कशी में 30 जनवरी 1889 जन्मे बालक को माता मुन्नी देवी और पिता बाबू देवीप्रसाद ने जयशंकर प्रसाद नाम दिया। बाबू देवीप्रसाद के दादा के ज़माने से उनका तम्बाकू का व्यापर था पर उनके यहाँ साहित्यकारों को बहुत सम्मान मिलता था और कहा तो ये भी जाता है की जयशंकर प्रसाद का बचपन का नाम झारखंडी था। इतने बड़े साहित्यकार जयशंकरप्रसाद सिर्फ 7 वीं कक्षा तक पड़े थे।
इतने बड़े साहित्यकार जयशंकर प्रसाद पर लोग आज भी रिसर्च कर के पीएचडी कर रहें है। इससे ये सिद्ध हो जाता है की ज्ञान डिग्री का मोहताज नहीं होता इनकी बात तो यही तक लेकिन जब महादेवी वर्मा जी जिन्हे आज बे बड़े साहित्यकारों में से एक मन जाता है वह जयशंकर परसाद से मिलने के लिए बनारस पहुंच गई। और मजे की बात ये है की महादेवी वर्मा ने न कभी जयशंकर प्रसाद को देखा न ही मिली थी और जयशंकर प्रसाद भी महादेवीवर्मा से नहीं मिले थे। उस समय सोशल मीडिया का ज़माना तो था नहीं की वो ऑनलाइन मिल लेते उस समय तो किताबों कविताओं के माधयम से साहित्यकार मिलते थे यही सोच कर वह उनसे मिलने चली गई क्योंकि उन्हें लगता था जयशंकर प्रसाद पूरे भारत में तो मशहूर है तो बनारस का उन्हें बच्चा- बच्चा जनता होगा यही सोच कर उन्होंने कुछ टाँगेवालो से प्रसाद जी का पता पुछा पर उन्हें कोई सटीक उत्तर नहीं मिला अंत में उन्होंने निराश होकर इलाबाद चले जाने का निर्णय लिया तभी एक टाँगे वाले ने आकर पुछा की सुन्नी साहू के घर जाना है क्या? उन्हें ये थोड़ा अजीब लगा पर उन्हें लगा की कोई साहूकार होंगे, अंत में उन्होंने टाँगे वाले से पूछ लिया की ये सुन्नी साहू करते क्या हैं तब उन्हें पता चला की खैनी बेचते हैं, महादेवी वर्मा को इस चीज़ पर गुस्सा आगया और उन्होंने कहा की मुझे किसी तम्बाकू व्यापारी से नहीं मिलना, मुझे जिससे मिलना हैं वो बहुत बड़े साहित्यकार हैं तो टाँगेवाले ने कहा की हमारे सुन्नी साहू ने भी बहुत बड़ी कवितायें रची हैं। अब उन्हें लगा ये तांगेवाला तो प्रसाद जी को नहीं जानता पर सुन्नी साहू जी ज़रूर जानते होंगे। यही सोच कर वो वह पहुँची जहाँ सुन्नी साहू रहते थे तब उन्हें पता चला की जयशंकर प्रसाद का घराना ही सुन्नी साहू की नाम से जाना जाता हैं अब आप सोच सकतें है की जयशंकर प्रसाद ने तम्बाकू और जर्दे का व्यापर तो किया पर कभी कविता का व्यापार नहीं किया।
प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई थी फिर उन्हें आगे की पढाई के लिए कशी के क्वींस इण्टर कॉलेज में भेज दिया था वही क्वींस कॉलेज जहाँ कभी भारतेन्दु का भी नामांकरण कराया गया था अभी जयशंकर प्रसाद 7 कक्षा में ही थे की उनके पिता का साया उनके सर से हट गया 1900ई में बाबू देवीप्रसाद का निधन हो गया था फिर उनके बड़े भाई शंभु रतन जी ने जय शंकर प्रसाद की शिक्षा की व्यवस्था घर पर ही कर दी और उन्होंने स्वाध्याय के द्वारा ही वेद, पुराण, उपनिषध, इतिहास, दर्शन, काव्यशास्त्र का गहरा अघ्यन किया जो उनकी रचनाओं का आधार बना। प्रशाद जी ने जिन गुरुंओं से शिक्षा ली उसमें पहला नाम मोहोनिलाल गुप्त का लिया जाता हैं जो रसमय सिद्ध काव्ये के नाम से रचनाये भी किया करते थे और महामहोपाध्याय पं. देवीप्रसाद शुल्क उनके काव्ये गुरु थे अब जब उनका जीवन चल ही रहा था तो उनकी माता मुन्नी देवी का देहांत हो गया बस इस दर्द को प्रसाद जी जैसे तैसे संभाल ही रहे थे की बड़े भाई शंभु रतन का भी देहांत हो गया। 18 साल की कच्ची उम्र में ही उनके सर पर ज़िम्मेदारियों का भण्डार गिर पड़ा। व्यापार को भी संभालना था और विद्वा भाभी का भी ख्याल रखना था पर रिश्तेदार ने ऐसा नहीं सोचा उन्हें लगा की प्रसाद जी से सब हड़पने का अच्छा मौका हैं पर जैसे तैसे उन्होंने सब संभाला और अपना प्रारंभिक जीवन दुःख कष्ट और चुनौयापार नहीं किया
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