
अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित व्यवहारों का सुधारक होता है।
— प्रेमचंद
राजेंद्र यादव का जन्म 28 अगस्त 1929 को हुआ था। वह हिंदी साहित्य की सुप्रसिद्ध पत्रिका “हंस” के संपादक और लोकप्रिय उपन्यासकार थे। वह फिल्मों के संवाद से, खुद की जिंदगी की परिभाषा करते थे। जिस दौर में हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाएं अकाल मौत का शिकार हो रही थीं उस दौर में भी हंस का लागातार प्रकाशन राजेंद्र यादव की वजह से ही संभव हो पाया। उस समय अगर सर्वश्रेष्ठ विद्वानों का नाम लिया जाए तो सर्वप्रथम राजेंद्र यादव का नाम सामने आता है। उपन्यास, कहानी, कविता और आलोचना सहित साहित्य की तमाम विधाओं पर उनकी समान पकड़ थी। जब साहित्य सम्राट प्रेमचंद की विरासत और मूल्यों को लोग भुला रहे थे तब, राजेंद्र यादव ने “प्रेमचंद” द्वारा सन 1930 में प्रकाशित पत्रिका “हंस” का पुन: प्रकाशन कर साहित्यिक मूल्यों को नई दिशा दी। यह कार्य उन्होंने प्रेमचंद की जयंती पर 31 जुलाई 1986 में शुरू किया। प्रकाशन का जिम्मा उन्होंने खुद संभाला। उनकी कोशिश कई नई पीढ़ी के लेखकों को मंच पर हौसला एक साथ दिया। ये पत्रिका अपने अंदर कहानी, कविता, लेख, संस्मरण, समीक्षा, लघुकथा, ग़ज़ल आदि के सभी विद्याओं को समेटे हुए हैं। दलित और स्त्री विमर्श पर आधारित हंस पत्रिका हिंदी साहित्य में बेंच मार्क बन गई। राजेंद्र यादव ने “हंस“ पत्रिका के जरिए हिंदी साहित्य की दुनिया में न सिर्फ़ नाम कमाया बल्कि, अपनी कलमकारी के ज़रिए, करोड़ों हिंदी प्रेमियों-कहानीकारों के जिंदगी का एक खास हिस्सा बन गए। शब्दों के ज़रिए ज़िंदगी की शक्ल – सूरत तलाशने वाले, राजेंद्र यादव की कहानी, कविता, उपन्यास, लेखन की हर शैली पर गहरी पकड़ थी।
राजेंद्र यादव ने आगरा विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. किया। पढ़ाई के बाद कुछ साल तक आगरा में रहने के बाद, राजेंद्र यादव ने दिल्ली का रुख किया। दिल्ली उनके लिए, ‘जानेमन दिल्ली’ भी थी और ‘दरबदर दयार’ भी। अपने यकीन और लिखने की क्षमता की बदौलत राजेंद्र यादव “प्रसार भारती” के सदस्य बनें। ‘हंस’ से जुड़ने के बाद राजेंद्र यादव ने लेखन में कई प्रयोग किए। कुछ नए थे और खारिज होने का डर था, लेकिन भरोसे ने संभाला और राजेंद्र यादव घर-घर में जाना पहचाना नाम हो गए। देवताओं की मूर्तियां, खेल-खिलौने, अभिमन्यु की हत्या, जहां लक्ष्मी कैद है, छोटे-छोटे ताजमहल, किनारे से किनारे तक, हो या फिर उपन्यास – सारा आकाश, उखड़े हुए लोग, उल्टा, शह और मात, अनदेखे अनजाने पुल, एक था शैलेंद्र, सभी ने राजेंद्र यादव को श्रेष्ठता के शिखर पर पहुंचा दिया।
“मेरे-तेरी उसकी बात” के तहत प्रस्तुत, राजेंद्र यादव की संपादकीय सदैव एक नए विमर्श को खड़ा करती नजर आती है। यह अकेली ऐसी पत्रिका है जिस के संपादकीय पर तमाम प्रतिष्ठत पत्र-पत्रिकाएं किसी न किसी रुप में बहस करती नज़र आती हैं।
कविता लेखन की शुरुआत करने वाले ‘हंस’ के संपादक, राजेंद्र यादव ने बड़ी बेबाकी से सामंती मूल्यों पर प्रहार किया। दलित और नारी विमर्श को हिंदी साहित्य जगत में चर्चा का मुख्य विषय बनाने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। निश्चित तौर पर यह तत्व हंस पत्रिका में भी उभरकर सामने आता है। न जाने कितनी प्रतिभाओं को इस पत्रिका ने पहचाना, तराश और सितारा बना दिया। शायद इसलिए, इस के संपादक राजेंद्र यादव को हिंदी साहित्य का “द ग्रेट शो मैन “ कहा जाता है। निश्चित तौर पर ‘हंस’ के द्वारा हिंदी साहित्य में उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।
मन्नू भंडारी के साथ लिखा उनका उपन्यास “एक इंच मुस्कान” हिंदी साहित्य में आज भी किसी बेंच मार्क से कम नहीं है। 50 सालो तक अपनी लेखनी से, हिंदी साहित्य को शिखर तक पहुंचाने वाले “दी ग्रेट शो मैन” राजेंद्र यादव का 28 अक्टूबर 2013 की रात को दिल्ली में 84 साल की उम्र में उन्होंने आखिरी सांस ली। उन्हें मौजूदा हिंदी लेखकों के कई नामों को आगे लाने का श्रेय जाता है। कहते हैं प्रेमचंद की ‘हंस’ को फिर से सांस देकर उन्होंने, एक शिष्य का आदर्श उदाहरण सामने रखा था। आज भी हिंदी साहित्य की बात हो तो उसके स्तंभ के रूप में राजेंद्र यादव का सबसे ऊपर होता है।
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