
परम्पराओं को चुनौती देने वाली कृष्ण भक्त मीराबाई।

पग घूँघरू बाँध मीरा नाची रे।
मैं तो मेरे नारायण की आपहि हो गई दासी रे।
लोग कहै मीरा भई बावरी न्यात कहै कुलनासी रे॥
विष का प्याला राणाजी भेज्या पीवत मीरा हाँसी रे।
'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर सहज मिले अविनासी रे॥
-मीराबाई
कलयुग की राधा कहीं जाने वाली मीराबाई कृष्ण प्रेम में रंगी एक ऐसी अनन्य भक्त थीं जिनका नाम सुनते ही कृष्ण की छवि मन में अपने आप बन जाती है। कृष्ण प्रेम में रंग अपने पुरे जीवन को कृष्ण भक्ति में सम्पर्पित कर देने वाली मीरा बाई सोलहवीं शताब्दी की आध्यात्मिक कवयित्री थीं जिन्होंने समाज की कई परम्परों को तोड़ स्वयं को कृष्ण को अर्पण कर दिया। भगवान् कृष्ण को समर्पित उनके भजन आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं जितने उनके समय में थे। बात करें इनके जन्म स्थान की तो मीराबाई का जन्म राजपूतों के राठौड़ वंश में हुआ था जो उस समय मेवाड़ के अधीन था और आज यह स्थान राजस्थान के पश्चिम इलाके में आता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार मीरा बाई का विवाह मेवाड़ के राजा राणा सांगा के सबसे बड़े पुत्र भोजराज से हुआ था। परन्तु वो कृष्ण को खुद को समर्पित कर चूँकि थी इसलिए मीरा इस विवाह को वैधिक नहीं मानती थी जिसके बाद उन्होंने अपने विवाहिक जीवन और दुनिया का त्याग कर दिया। ऐसा कहा जाता है कि इसके बाद भी राजा भोजराज ने मीरा को हर और से अपना लिया था। जिसके बाद एक युद्ध में उनके पति वीरगति को प्राप्त हो गए परन्तु मीरा बाई ने विधवा परंपरा को नहीं माना और अपनी कृष्ण भक्ति में पहले की भांति लीन रहीं। समाज के ताने मीरा सुनती रहीं परन्तु कृष भक्ति के आगे मीरा के लिए सब व्यर्थ था ,कुछ समय बाद ही मीरा को उनकी कृष्ण मूर्ति के साथ महल से निकाल दिया गया जिसके बाद मीरा ने रविदास को अपना गुरु मान लिया जो तब की धारणा के मुताबिक अछूत थे परन्तु मीरा ऊंच घराने की थीं मीरा ने ऊंच-नीच की इस परंपरा को तोड़ समाज में एक आंदोलन लाने का कार्य किया। वास्तव में मीराबाई ने अपने जीवन में समाज द्वारा स्थापित कई परम्पओं को तोरा और समाज में आंदोलनकारी भक्त के रूप में अपनी पहचान बनाई मीराबाई ने कई भजन और कविताएं लिखीं।
चलिये पढ़तें हैं उनकी लिखी कुछ प्रेम रस की कविताओं को :
[पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो]
पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी म्हारे सतगुरू, किरपा कर अपनायो॥
जनम-जनम की पूँजी पाई, जग में सभी खोवायो।
खरच न खूटै चोर न लूटै, दिन-दिन बढ़त सवायो॥
सत की नाँव खेवटिया सतगुरू, भवसागर तर आयो।
'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर, हरख-हरख जस पायो॥
-मीराबाई
[नैना निपट बंकट छबि अटके]
नैना निपट बंकट छबि अटके।
देखत रूप मदनमोहन को, पियत पियूख न मटके।
बारिज भवाँ अलक टेढी मनौ, अति सुगंध रस अटके॥
टेढी कटि, टेढी कर मुरली, टेढी पाग लट लटके।
'मीरा प्रभु के रूप लुभानी, गिरिधर नागर नट के॥
-मीराबाई
[मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई]
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।
तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई।।
छांडि दई कुलकी कानि कहा करिहै कोई।
संतन ढिग बैठि बैठि लोकलाज खोई।।
चुनरी के किये टूक ओढ़ लीन्ही लोई।
मोती मूंगे उतार बनमाला पोई।।
अंसुवन जल सीचि सीचि प्रेम बेलि बोई।
अब तो बेल फैल गई आंणद फल होई।।
दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से बिलोई।
माखन जब काढ़ि लियो छाछ पिये कोई।।
भगति देखि राजी हुई जगत देखि रोई।
दासी मीरा लाल गिरधर तारो अब मोही।।
-मीराबाई
[स्वामी सब संसार के हो सांचे श्रीभगवान]
स्वामी सब संसार के हो सांचे श्रीभगवान।।
स्थावर जंगम पावक पाणी धरती बीज समान।
सबमें महिमा थांरी देखी कुदरत के कुरबान।।
बिप्र सुदामा को दालद खोयो बाले की पहचान।
दो मुट्ठी तंदुलकी चाबी दीन्हयों द्रव्य महान।
भारत में अर्जुन के आगे आप भया रथवान।
अर्जुन कुलका लोग निहारयां छुट गया तीर कमान।
ना कोई मारे ना कोइ मरतो, तेरो यो अग्यान।
चेतन जीव तो अजर अमर है, यो गीतारों ग्यान।।
मेरे पर प्रभु किरपा कीजौ, बांदी अपणी जान।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरण कंवल में ध्यान।।
-मीराबाई
[दरस बिन दूखण लागे नैन।]
दरस बिन दूखण लागे नैन।
जबसे तुम बिछुड़े प्रभु मोरे, कबहुं न पायो चैन।
सबद सुणत मेरी छतियां, कांपै मीठे लागै बैन।
बिरह व्यथा कांसू कहूं सजनी, बह गई करवत ऐन।
कल न परत पल हरि मग जोवत, भई छमासी रैन।
मीरा के प्रभु कब रे मिलोगे, दुख मेटण सुख देन।
-मीराबाई
[मैं तो सांवरे के रंग राची।]
मैं तो सांवरे के रंग राची।
साजि सिंगार बांधि पग घुंघरू, लोक-लाज तजि नाची।।
गई कुमति, लई साधुकी संगति, भगत, रूप भै सांची।
गाय गाय हरिके गुण निस दिन, कालब्यालसूँ बांची।।
उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
मीरा श्रीगिरधरन लालसूँ, भगति रसीली जांची।।
-मीराबाई
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