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महाकाव्य रश्मिरथी!!

Kavishala DailyKavishala Daily September 9, 2021
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ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,

दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।

क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग,

सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।

-रामधारी सिंह 'दिनकर'

हिंदी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ कविओं में विद्यमान कवि रामधारी सिंह दिनकर द्वारा लिखी गई महाकाव्य रश्मिरथी सबसे लोकप्रिय कविताओं में से एक हैं ,जिसका मुख्यत अर्थ है "सूर्यकिरण रथ का सवार है"। रश्मिरथी महाकाव्य महाभारत की कहानी है। जिसमे विशेष रूप से सूर्य के पुत्र और पांडवों में श्रेष्ठ भाई कर्ण का वर्णन है। सूर्य के पुत्र होने के बाद भी उनके जीवन की अस्त-व्यस्थता और संघर्षो को इस काव्यखण्ड में दर्शाया गया है। कर्ण के साथ ही उनसे परचित सभी पात्रो को भी इस महाकाव्य में वर्णिंत किया गया है। दिनकर ने रश्मिरथी में सारे सामाजिक और पारिवारिक संबंधों जैसे अविवा हित मातृत्व ,विवाहित मातृत्व या गुरु और शिष्य के बिच का सम्बन्ध , सभी को अपने दृष्टि के अनुसार वर्णित किया है। यह लोकप्रिय महाकाव्य 1952 में प्रकाशित हुआ था जिसमें पुरे 7 सर्ग हैं।

अपने इस महाकाव्य में दिनकर ने केवल कर्ण को वर्णिंत नहीं किया बल्कि दलित मुक्ति चेतना का स्वर भी ऊपर उठाया है ,और समाज में ऊंच-नीच जाती और भेद भाव के प्रति ,सभी का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है। और अन्याय के प्रति अपना आक्रोश वयक्त किया है।


त्वमेव कर्णं जानासि वेदवादान् सनातनम्।

त्वमेव धर्मं शास्त्रेषु सूक्ष्मेषु परिनिष्ठितः॥

सिंहर्षभ गजेन्द्राणां बलवीर्य पराक्रमः।

दीप्तिकान्तिद्युतिगुणैः सूर्येन्दुज्वलनोपमः॥

-श्री कृष्ण


प्रथम सर्ग

कौरव और पांडवों ने अपनी शिक्षा गुरु द्रोणाचार्य के निरीक्षण में पूरी की थी। छात्रवास से लौटने पर उनके रण कौशल को जनता के समक्ष प्रदर्शन करने के लिए एक सार्वजनिक आयोजन किया गया। सभी छात्रों में द्रोणाचार्य का प्रिये शिष्य अर्जुन था जिसने अपने कौशलता से सभी को प्रभावित कर दिया और पुरे रण में अर्जुन का नाम गूंजने लगा तभी वहाँ कर्ण पहुँच गया जिसने सभी से समक्ष अर्जुन को द्वंद्व के लिए कहा।


‘‘क्षत्रिय है, यह राजपूत्र है, यों ही नहीं लड़ेगा,

जिस-तिस से हाथापाई में कैसे कूद पड़ेगा ?

अर्जुन से लड़ना हो तो मत गहो सभा में मौन,

नाम-धाम कुछ कहो, बताओ कि तुम जाति हो कौन ?


जिसपर कृपाचार्य ने उससे उसकी जाती ,धर्म और कुल के बारे में पूछा और कहा कि एक राजकुमार से केवल दूसरा राजकुमार ही द्वंद कर सकता है ,तुम किस कुल के राजकुमार हो।



‘‘अंगदेश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ,

एक राज्य इस महावीर के हित अर्पित करता हूँ।

रखा कर्ण के सिर पर उसने अपना मुकुट उतार,

गूँजी रंगभूमि में दुर्योधन की जय-जय-कार।


दुर्योधन ने कर्ण के शक्ति को पहचान लिया की वो एक महान योद्धा है। दुर्योधन को अर्जुन और पांचो पांडवों से बहुत ईर्ष्या थी , उसने कर्ण का पक्षः लेते हुए और कर्ण को अंगदेश का राजा घोषित करते हुए अपना मुकुट उतार कर उसके सर रख दिया। जिसके बाद दुर्योधन के नाम की जय जय होने लगी।

और हाय, रनिवास चला वापस जब राजभवन को,

सबके पीछे चलीं एक विकला मसोसती मन को।

उजड़ गये हों स्वप्न कि जैसे हार गयी हों दाँव,

नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुन्ती के पाँव।


कर्ण को देखते ही कुंती ने उन्हें पहचान लिया परन्तु उनका इतना साहस नहीं हुआ की वे कृपाचार्य को ये कह सकें की कर्ण उनके ही पुत्र हैं। ये सब वे परदे के पीछे रनिवास से देखती रहीं और शौक से मुर्छित अवस्था में चली गई। महल लौटते समय रथ तक जाने के लिए भी उनके पाँव डगमगा रहे थें ।



द्वितीय सर्ग

अजिन, दर्भ, पालाश, कमंडलु-एक ओर तप के साधन,

एक ओर हैं टँगे धनुष, तूणीर, तीर, बरझे भीषण।

चमक रहा तृण-कुटी-द्वार पर एक परशु आभाशाली,

लौह-दण्ड पर जड़ित पड़ा हो, मानो, अर्ध अंशुमाली

इसके बाद कर्ण शस्त्रास्त्र सीखने के लिए उस समय के महा-प्रतापी वीर परशुराम जी की सेवा में पहुँच गया जो संसार से अलग होकर उन दिनों महेंद्रगिरि पर रहते थे।परशुराम ने यह प्रण लिया था की वे केवल 'ब्राह्मणेतर जाति के युवकों को शस्त्रास्त्र की शिक्षा देंगे । जब उन्होंने कर्ण और उसके कवच-कुण्डल देखे, तब उन्हें लगा कि यह ब्राह्मण पुत्र ही होंगे जिसका कर्ण ने भी खण्डन नहीं किया।


हाँ-हाँ, वही, कर्ण की जाँघों पर अपना मस्तक धरकर,

सोये हैं तरुवर के नीचे, आश्रम से किञ्चित् हटकर।

पत्तों से छन-छन कर मीठी धूप माघ की आती है,

पड़ती मुनि की थकी देह पर और थकान मिटाती है!!


परशुराम गंभीर हो गये सोच न जाने क्या मन में,

फिर सहसा क्रोधाग्नि भयानक भभक उठी उनके तन में।

दाँत पीस, आँखें तरेरकर बोले- 'कौन छली है तू?

ब्राह्मण है या और किसी अभिजन का पुत्र बली है तू?


पर एक दिन उनका यह झूठ सामने आ ही गया जब परशुराम कर्ण की जंघा पर सर रख कर सो रहे थे। तभी वहाँ एक बिच्छू आ गया जिसने कर्ण के जांघ के निचे गहरा घाव कर दिया ,गुरु की नींद न खंडित हो जाये इसलिए कर्ण ने घाव का दर्द सहा और बिना हिले डुले बैठे रहा। जब परशुराम को रक्त का स्पर्श हुआ उनकी नींद भंग हो गई और वे आश्चर्य चकित रह गए की एक ब्राह्मण में इतनी सहन शक्ति कैसे हो सकती है और वे जान गए ही कर्ण ब्राह्मण नहीं है। परशुराम ने क्रोधित होकर कर्ण को श्राप दे दिया की अपने अंतकाल में वो परशुराम द्वारा दी सारी शिक्षा भूल जाएगा।


तृतीय सर्ग


हो गया पूर्ण अज्ञात वास,

पाडंव लौटे वन से सहास,

पावक में कनक-सदृश तप कर,

वीरत्व लिए कुछ और प्रखर,

नस-नस में तेज-प्रवाह लिये,

कुछ और नया उत्साह लिये।


दुर्योधन ने छल के बल पर पांडवो को 12 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास दिया था जिसे पूरा कर पांडव लोटे और अपने इंद्रप्रस्थ की मांग की।


मैत्री की राह बताने को,

सबको सुमार्ग पर लाने को,

दुर्योधन को समझाने को,

भीषण विध्वंस बचाने को,

भगवान् हस्तिनापुर आये,

पांडव का संदेशा लाये।


कृष्णा कौरवो और पांडवो की संधि कराने हेतु कृष्ण हस्तिनापुर गए। परन्तु वहाँ दुर्योधन ने कृष्ण को ही बंदी बना देने का आदेश दिया।


हरि ने भीषण हुंकार किया,

अपना स्वरूप-विस्तार किया,

डगमग-डगमग दिग्गज डोले,

भगवान् कुपित होकर बोले-

'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,

हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।


जिस पर कृष्णा ने अपना विराट रूप दिखाया। जिसे देखते ही सब मूर्छित हो गए ,विधुर ने धृतरास्त्र को श्रीकृष्ण के भव्य रूप के बारे में बताया जिस पर उसे स्वं के नेत्रहीन होने पर पश्चातप ह

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