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महाकाव्य पद्मावत!!

Kavishala DailyKavishala Daily September 13, 2021
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हाट बाट सब सिंघल जहँ देखहु तहँ रात ।

धनि रानी पदमावति जेहिकै ऐसि बरात ॥


मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य एक प्रेम कथा है जो रत्नसेन और पद्मावती की प्रसिद्ध ऐतिहासिक कथा पर आधारित है। यह हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत सूफी परम्परा का प्रसिद्ध महाकाव्य है जिसकी लेखनी दोहे और चौपाई में लिखित हैं। बात करें इसकी भाषा शैली की तो इसकी भाषा शैली अवधि है। दोहों की संख्या 653 है जो चौपाई की प्रत्येक सात अर्धालियों के बाद लिखित है। बात करें इसके रचना काल की तो जायसी स्वयं लिखते हैं कि उन्होंने 'पद्मावत' की रचना 927 हिजरी में प्रारंभ की।इस महाकाव्य में कुल 57 खंड हैं।


पद्मावती का सुआ 


एक दिवस पून्यो तिथि आई । मानसरोदक चली नहाई ॥

पदमावति सब सखी बुलाई । जनु फुलवारि सबै चलि आई ॥

कोइ चंपा कोइ कुंद सहेली । कोइ सु केत, करना, रस बेली ॥

कोइ सु गुलाल सुदरसन राती । कोइ सो बकावरि-बकुचन भाँती ॥

कोइ सो मौलसिरि, पुहपावती । कोइ जाही जूही सेवती ॥

कोई सोनजरद कोइ केसर । कोइ सिंगार-हार नागेसर ॥

कोइ कूजा सदबर्ग चमेली । कोई कदम सुरस रस-बेली ॥


पद्मावती को सबसे प्रिये उसका सुआ था जिसके साथ वो पूरा दिन बिताया करती थी।  

एक दिन जब पद्मावती सखियों को लिए हुए मानसरोवर में स्नान करने गई तो सुआ भी उनके साथ चल दिया जहाँ वह वन में पक्षियों ने उसका बड़ा सत्कार किया। वन में सुआ को बहेलिये ने पकड़ लिया और बाज़ार में उसे बेचने के लिए ले गया। जहा से सूए को एक ब्राह्मण ने खरीद लिया और चित्तोर ले गया। चित्तौड़ में उस समय 'रत्नसेन' गद्दी पर बैठा था। प्रशंसा सुनकर रत्नसेन ने लाख रुपये देकर हीरामन सूए को मोल ले लिया।


पद्मावती का सौन्दर्य बखान 


पदमावति पहँ आइ भँडारी । कहेसि मँदिर महँ परी मजारी ॥

सुआ जो उत्तर देत रह पूछा । उडिगा, पिंजर न बोलै छूँछा ॥

रानी सुना सबहिं सुख गएऊ । जनु निसि परी, अस्त दिन भएऊ ॥

गहने गही चाँद कै करा । आँसु गगन जस नखतन्ह भरा ॥

टूट पाल सरवर बहि लागे । कवँल बूड, मधुकर उडि भागे ॥

एहि विधि आँसु नखत होइ चूए । गगन छाँ सरवर महँ ऊए ॥

चिहुर चुईं मोतिन कै माला । अब सँकेतबाँधा चहुँ पाला ॥


एक रोज रानी नागमती सूए के पास आई और बोली - 'मेरे समान सुन्दरी और भी कोई संसार में है?' जिस पर हस्ते हुए सूए ने पद्मावती की सुंदरता का बखान करना चालू जिस पर रानी ने उसे मार देने देने का आदेश दिया। परिणाम के दर से दास ने सूए को नहीं मारा जब राजा ने सूए की पूछ की तो सूए को राजा के समक्ष लाया गया जहाँ उसने पद्मावती के अनुपम सौंदर्य का वर्णन किया। राजा की पद्मावती को देखने की अभिलाषा अत्यंत उत्तेज हो गई। और सूए को ले कर वो सिंघल राज्य की और निकल गया। 


पद्मावती और सुये की भेंट 


बिछुरंता जब भेंटै सो जानै जेहि नेह ।

सुक्ख-सुहेला उग्गवै दुःख झरै जिमि मेह ॥


राजा के साथ सोलह हज़ार कुँवर भी जोगी होकर चले। सिंहलद्वीप में उतरकर जोगी रत्नसेन तो अपने सब जोगियों के साथ महादेव के मन्दिर में बैठकर तप और पद्मावती का ध्यान करने लगा और हीरामन पद्मावती से भेंट करने गया। उसने राजा को बताया की पंचमी के दिन पद्मावती इसी महादेव के मण्डप में वसन्तपूजा करने आएगी; और तब आपकी उससे मिलने की अभिलाषा पूर्ण होगी। इतने वक़्त के बाद सूए को देख पद्मावती रोने लगीं जिसके बाद सूए ने राजा के राज वैभव का बखान किया जिस पर पद्मावती उससे विवाह करने पर मान गई। रत्न और पद्मावती मिलान 


राजै तपत सेज जो पाई । गाँठि छोरि धनि सखिन्ह छपाई ॥

कहैं, कुँवर ! हमरे अस चारू । आज कुँवर कर करब सिंगारू ॥

हरदि उतारि चढाउब रगू । तब निसि चाँद सुरुज सौं संगू ॥

जस चातक-मुख बूंद सेवाती । राजा-चख जोहत तेहि भाँती ॥

जोगि छरा जनु अछरी साथा । जोग हाथ कर भएउ बेहाथा ॥

वै चातुरि कर लै अपसईं । मंत्र अमोल छीनि लेइ गईं ॥

बैठेउ खोइ जरी औ बूटी । लाभ न पाव , मूरि भइ टूटी ॥


वसंत पंचमी के दिन जैसे ही राजा ने पद्मावती को देखा वैसे ही वो मूर्छित हो गया पद्मावती ने उसका उपचार किया परन्तु जब वो नहीं जगा तो चन्दन से उसकी ह्रदय पर लिख दिया की 'जोगी, तूने भिक्षा प्राप्त करने योग्य योग नहीं सीखा, जब फलप्राप्ति का समय आया तब तू सो गया' और वह से चली गई। 


युद्ध और विवाह 


कटक असूझ देखि कै राजा गरब करेइ ।

देउ क दशा न देखै , दहुँ का कहँ जय देइ ॥


राजा गन्धर्वसेन के यहाँ जब यह खबर पहुँची तब उसने दूत भेजे जिसके द्वारा उसे पूरी सुचना प्राप्त हुए और उसने राजा रत्नं जिंगः को बंदी बना लेने का आदेश दिया। जा गन्धर्वसेन के यहाँ विचार हुआ कि जोगियों को पकड़कर सूली दे दी जाय। दल बल के सहित सब सरदारों ने जोगियों पर चढ़ाई की। रत्नसेन के साथी युद्ध के लिए उत्सुक हुए पर रत्नसेन ने उन्हें यह उपदेश देकर शान्त किया कि प्रेममार्ग में क्रोध करना उचित नहीं। अन्त में सब जोगियों सहित रत्नसेन पकड़ा गया। इधर यह सब समाचार सुन पद्मावती की बुरी दशा हो रही थी। हीरामन सूए ने जाकर उसे धीरज बँधाया कि रत्नसेन पूर्ण सिद्ध हो गया है, वह मर नहीं सकता।



हाट बाट सब सिंघल जहँ देखहु तहँ रात ।

धनि रानी पदमावति जेहिकै ऐसि बरात ॥


जब राजा को सूली पर चढाने की तैयारी हो रही थी तब महादेव और पार्वती भाट भाटिनी का रूप धरकर वहाँ पहुँचे और राजा गंधर्व को समझने का प्रयास की की जिसे तमने बंदी बना रखा है वे कोई योगी नहीं परन्तु एक छेत्रिये हैं जो तम्हारी पुत्री के लिए योग्य है। महादेव के साथ हनुमान आदि सब देवता जोगियों की सहायता के लिए आ खड़े हुएऔर चारो तरफ से घेर लिया और चढ़ाई करने के लिए तत्पर आ गए। गन्धर्वसेन की सेना के हाथियों का समूह जब आगे बढ़ा तब हनुमान जी ने अपनी लम्बी पूँछ में सबको लपेटकर आकाश में फेंक दिया। राजा गन्धर्वसेन को फिर महादेव का घण्टा और विष्णु का शंख जोगियों की ओर सुनाई पड़ा और साक्षात शिव युद्धस्थल में दिखाई पड़े। यह देखते ही गन्धर्वसेन महादेव के चरणों पर जा गिरा और बोला - 'कन्या आपकी है, जिसे चाहिए उसे दीजिए' जिसके बाद पद्मावती और राजा रत्न का विवाह कर दिया गया। 

राघव को देश निकला 

राघव चेतन चेतन महा । आऊ सरि राजा पहँ रहा ॥

चित चेता जाने बहु भेऊ । कबि बियास पंडित सहदेऊ ॥

बरनी आइ राज कै कथा । पिंगल महँ सब सिंघल मथा ॥

जो कबि सुनै सीस सो धुना । सरवन नाद बेद सो सुना ॥

दिस्टि सो धरम-पंथ जेहि सूझा । ज्ञान सो जो परमारथ बूझा ॥

जोगि, जो रहै समाधि समाना । भोगि सो, गुनी केर गुन जाना ॥

बीर जो रिस मारै, मन गहा । सोइ सिगार कंत जो चहा ॥


चित्तौड़गढ़ की राजसभा में राघवचेतन नाम का एक पण्डित था जिसे यक्षिणी सिद्ध थी। एक रोज राजा ने उसे पूछा दूज कब है ?इस पर राघव के मुँह से निकल गया की आज है दूज। राज सभा के बाकी पंडितों ने इसका खंडन करते हुए कहा की आज नहीं कल है दूज जिस पर राघव ने उत्तर दिया की का चाँद आज न निकला तो मैं पंडिताई छोर दूंगा। अपनी बात को सिद्ध काने के लिए उसने यक्षिणी के प्रभाव से उसी दिन संध्या के समय द्वितीया का चन्द्रमा दिखा दिया।परन्तु जब दूसरे दिन भी चन्द्रमा उसी तेज़ से दिखा तब उसका भेद खुल गया और राजा ने उसे राज्य से निकल दिया।  इस बात की सूचना जब रानी पद्मावती को मिली तो उसने जैसे गुणी पंडित को निकाल देना उचित नहीं समझा उसने अगले भोर पंडित को बुलाया। झरोखे से दान के साथ कंगन जो बहुत अमूल्य था उसे फेका राघव ने पद्मावती की झलक देख ली और मूर्छित हो गया। होश आने पर उसने पद्मावती के अनुपान सौंदर्य का बखान दिल्ली के सुल्तान के सामने करने का सोचा। उसने सोचा सुल्तान लम्पट है, तुरन्त चित्तौड़ पर चढ़ाई करेगा और इसके जोड़ का दूसरा कंगन भी मुझे इनाम देगा। यदि ऐसा हुआ तो राजा से मैं बदला भी ले लूँगा और सुख से जीवन भी बिताऊँगा।



राघव का बदला 


ससि-मुख जबहिं कहै किछु बाता । उठत ओठ सूरुज जस राता ॥

दसन दसन सौं किरिन जो फूटहिं । सब जग जनहुँ फुलझरी छूटहिं ॥

जानहुँ ससि महँ बीजु देखावा । चौंधि परै किछु कहै न आवा ॥

कौंधत अह जस भादौं-रैनी । साम रैनि जनु चलै उडैनी ॥

जनु बसंत ऋतु कोकिल बोली । सुरस सुनाइ मारि सर डोली ॥

ओहि सिर सेस नाग जौ हरा । जाइ सरन बेनी होइ परा ॥

जनु अमृत होइ बचन बिगासा । कँवल जो बास बास धनि पासा ॥



राघव दिल्ली पहुँचा और वहाँ बादशाह अलाउद्दीन को कंगन दिखाकर उसने पद्मिनी के सौंदर्य का वर्णन किया। ऐसे अनुपम वर्णन को सुन कर बादशाह ने अपने दूत द्वारा पत्र भेजा और राजा रत्न सिंह को पद्मिनी देदेने को कहा ,बदले में जितना राज्य उतने मिलने का आश्वाशन भी दिया। पत्र पा कर राजा क्रोध से भर गया और दूत को भगा दिया। जिसके बाद बादशाह अलाउद्दीन ने राज्य पर हुम्ला कर दिया। ८ वर्ष तक योध चला पर कोई परिणाम नहीं निकला जिसके उपरांत अलाउद्दीन ने चालाकी करके योध को कपट से जितने का सोचा। उसने उसने रत्नसेन के पास सन्धि का एक प्रस्ताव भेजा और यह कहलाया कि मुझे पद्मिनी नहीं चाहिए; समुद्र से जो पाँच अमूल्य वस्तुएँ तुम्हें मिली हैं उन्हें देकर मेल कर लो। जिसे राजा ने स्वीकार कर लिया और उसका बोहोत धुमधाम से महल में स्वागत किया। गोरा बादल नामक विश्वासपात्र सरदारों ने राजा को बहुत समझाया कि मुसलमानों का विश्वास करना ठीक नहीं, पर राजा ने ध्यान न दिया। वे दोनों वीर नीतिज्ञ सरदार रूठकर अपने घर चले गए। कई दिनों तक बादशाह की मेहमानदारी होती रही। एक दिन वह टहलते टहलते पद्मिनी के महल की ओर भी जा निकला, जहाँ एक से एक रूपवती स्त्रियाँ स्वागत के लिए खड़ी थीं। बादशाह ने राघव से, जो बराबर उसके साथ साथ था, पूछा कि 'इनमें पद्मिनी कौन है?' राघव ने कहा, 'पद्मिनी इनमें कहाँ? ये तो उसकी दासियाँ हैं।' बादशाह पद्मिनी के महल के सामने ही एक स्थान पर बैठकर राजा के साथ शतरंज खेलने लगा। जहाँ वह बैठा था वहाँ उसने एक दर्पण भी रख दिया था कि पद्मिनी यदि झरोखे पर आवेगी तो उसका प्रतिबिम्ब दर्पण में देखूँगा। पद्मिनी कुतूहलवश झरोखे के पास आई और बादशाह ने उसका प्रतिबिम्ब दर्पण में देखा। दर्पण में पद्मावती को देखते ही उसके अनुपम सौंदर्य के कारन वह मूर्छित हो गया और वही गिर गया। 


बादशाह का छल 


छठइँ पँवरि देइ माँडौ, सतईं दीन्ह चँदेरि ।

सात पँवरि नाँघत नृपहिं लेइगा बाँधि गरेरि ॥


बादशाह ने राजा से विदा माँगी। राजा उसे पहुँचाने के लिए उसके साथ जाने लगा एक एक फाटक पर बादशाह राजा को कुछ न कुछ देता चला। अन्तिम फाटक पार होते ही राघव के इशारे से बादशाह ने रत्नसेन को पकड़ लिया और बाँधकर दिल्ली ले गया। 



सोलह सौ पालकियां 


सखिन्ह बुझाई दगध अपारा । गइ गोरा बादल के बारा ॥

चरन-कँवल भुइँ जनम न धरे । जात तहाँ लगि छाला परे ॥

निसरि आए छत्री सुनि दोऊ । तस काँपे जस काँप न कोऊ ॥

केस छोरि चरनन्ह-रज झारा । कहाँ पावँ पदमावति धारा ?॥

राखा आनि पाट सोनवानी । बिरह-बियोगिनि बैठी रानी ॥

दोउ ठाढ होइ चँवर डोलावहिं । "माथे छात, रजायसु पावहिं ॥

उलटि बहा गंगा कर पानी । सेवक-बार आइ जो रानी ॥


पद्मिनी गोरा और बादल के घर गई और उन दोनों क्षत्रिय वीरों के सामने अपना दु:ख रोकर सुनाया और मदद मांगी । दोनों ने राजा को छुड़ाने की दृढ़ प्रतिज्ञा की और रानी को बहुत धीरज बँधाया। दोनों ने सोचा कि जिस प्रकार मुसलमानों ने धोखा दिया है उसी प्रकार उनके साथ भी चाल चलनी चाहिए। उन्होंने सोलह सौ ढकी पालकियों के भीतर सशस्त्र राजपूत सरदारों को बिठाया और जो सबसे उत्तम और बहुमूल्य पालकी थी उसके भीतर औजार के साथ एक लोहार को बिठाया। इस प्रकार वे यह प्रसिद्ध करके चले कि सोलह सौ दासियों के सहित पद्मिनी दिल्ली जा रही है। वह सजी हुई पालकी वहाँ पहुँचाई गई जहाँ राजा रत्नसेन कैद था। पालकी में से निकलकर लोहार ने राजा की बेड़ी काट दी और वह शस्त्र लेकर एक घोड़े पर सवार हो गया जो पहले से तैयार था। देखते देखते और हथियारबन्द सरदार भी पालकियों में से निकल पड़े। और इस प्रकार गोरा और बादल राजा को छुड़ाकर चित्तौड़गढ़ लेकर चले गए। 


राजा का वीरगति को प्राप्त होना 


गढ सौंपा बादल कहँ गए टिकठि बसि देव ।

छोडी राम अजोध्या, जो भावै सो लेव ॥


जब अलाउद्दीन को इस छल का पता चला तो उसने उनके पीछे सेना लगा दी गोरा बादल ने जब शाही फ़ौज पीछे देखी तब एक हज़ार सैनिकों को लेकर गोरा शाही फ़ौज को रोकने के लिए आगे बढ़ा गया और बादल राजा रत्नसेन को लेकर चित्तौड़ चला गया। गोरा ने अपने बल पर हज़ारों सैनिको को माए गिराया पर अंत में वीरगति को प्राप्त हो गया। रात्रि में पद्मावती ने देवपाल की दुष्टता का वर्णन राजा के समक्ष किया उसने उसे बाँध लाने की प्रतिज्ञा की। सबेरा होते ही रत्नसेन ने कुम्भलनेर पर चढ़ाई कर दी। रत्नसेन और देवपाल के बीच द्वन्द्व युद्ध हुआ। देवपाल की साँग रत्नसेन की नाभि में घुसकर उस पार निकल गई। देवपाल साँग को मारकर लौटना ही चाहता था कि रत्नसेन ने उसे धरदबोचा और उसका सिर काटकर उसके हाथ-पैर बाँधें और अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। चित्तौड़गढ़ की रक्षा का भार 'बादल' को सौंप रत्न मृत्यु को प्राप्त हो गए।


पद्मावती का सती होना 


नागमती पदमावति रानी । दुवौ महा सत सती बखानी ॥

दुवौ सवति चढि खाट बईठीं । औ सिवलोक परा तिन्ह दीठी ॥

बैठौ कोइ राज औ पाटा । अंत सबै बैठे पुनि खाटा ॥

चंदन अगर काठ सर साजा । औ गति देइ चले लेइ राजा ॥

बाजन बाजहिं होइ अगूता । दुवौ कंत लेइ चाहहिं सूता ॥

एक जो बाजा भएउ बियाहू । अब दुसरे होइ ओर-निबाहू ॥

जियत जो जरै कंत के आसा । मुएँ रहसि बैठे एक पासा ॥



राजा के वीरगति को प्राप्त होने के उपरान्त ही दोनों रानियां सती हो गयीं। बादशाह को रानी पद्मावत के सती होने की सुचना मिली। बादल ने वीरो की भांती युद्ध किया परन्तु वीरगति को प्राप्त हो गया और चित्तौड़गढ़ पर अलाउद्दीन का कब्ज़ा हो गया। 










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