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दुष्यंत कुमार TO धर्मयुग संपादक:
पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर ।
संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर ।
अब ज़िंदगी के साथ ज़माना बदल गया,
पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर ।
कल मयक़दे में चेक दिखाया था आपका,
वे हँस के बोले इससे ज़हर पीजिए हुज़ूर ।
शायर को सौ रुपए तो मिलें जब ग़ज़ल छपे,
हम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर ।
लो हक़ की बात की तो उखड़ने लगे हैं आप,
शी! होंठ सिल के बैठ गए ,लीजिए हुजूर ।
धर्मयुग सम्पादक (धर्मवीर
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